17th Mantra of Kathopanishada.
(सत्रहवां मन्त्र)
त्रिणाचिकेतस्त्रिभिरेत्य सन्धिं त्रिकर्मकृत् तरति जन्ममृत्यू।
ब्रह्मजज्ञ। देवमीड्यं विदित्वा निचाय्येमां शानितमत्यन्तमेति ॥१७॥
नाचिकेत अग्नि का तीन बार अनुष्ठान् करनेवाला और तीनों (ऋक्, साम, यजु:वेदों) के साथ सम्बन्ध जोड़कर तीनों कर्म (यज्ञ, दान, तप) करने वाला मनुष्य जन्म और मृत्यु को पार कर लेता है। वह ब्रह्मा से उत्पन्न उपासनीय अग्निदेव को जानकर और उसका चयन करके परम शान्ति को प्राप्त कर लेता है।
ब्रह्मजज्ञ। देवमीड्यं विदित्वा निचाय्येमां शानितमत्यन्तमेति ॥१७॥
नाचिकेत अग्नि का तीन बार अनुष्ठान् करनेवाला और तीनों (ऋक्, साम, यजु:वेदों) के साथ सम्बन्ध जोड़कर तीनों कर्म (यज्ञ, दान, तप) करने वाला मनुष्य जन्म और मृत्यु को पार कर लेता है। वह ब्रह्मा से उत्पन्न उपासनीय अग्निदेव को जानकर और उसका चयन करके परम शान्ति को प्राप्त कर लेता है।
That one who performs this Nachiketas fire- sacrifice (the Agni Vidya will now be known by this name) three times, being united with the three (mother, father and teacher), and who fulfills the three-fold duty (study of the Vedas, sacrifice and alms-giving) crosses over birth and death. Knowing this worshipful shining fire, born of Brahman, and realizing Him, then he obtains everlasting peace.
सुंदर व्याख्या. इसे और भी विस्तार दिया जा सकता है ताकि पाठक इसके गहनतम अर्थ को भलिभाँति समझ सकें.
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