भूमिका: छांदोग्य उपनिषद् की प्रसिद्ध कथा – महर्षि उद्दालक और उनके पुत्र श्वेतकेतु का संवाद – केवल एक पारंपरिक उपदेश नहीं, बल्कि आत्मबोध और अद्वैत वेदांत दर्शन का मूल आधार है। इस संवाद में प्रतिपादित महावाक्य "तत् त्वम् असि" (तू वही है) समस्त वेदांत का सार है, जो यह उद्घोष करता है कि आत्मा और ब्रह्म अलग नहीं, एक ही हैं।
छांदोग्य उपनिषद् (६.१-१६) में महर्षि उद्दालक और उनके पुत्र श्वेतकेतु का संवाद आत्मज्ञान के सर्वोच्च सत्य को प्रकट करता है। यहीं पर प्रसिद्ध "तत् त्वम् असि" (तू वही है) महावाक्य प्रतिपादित होता है, जो अद्वैत वेदांत दर्शन का मूल आधार है।
विस्तृत कथा एवं शिक्षा
1. श्वेतकेतु का अहंकार और पिता का प्रश्न
कथा प्रारंभ होती है जब श्वेतकेतु १२ वर्ष की आयु में वेदाध्ययन हेतु गुरुकुल जाता है और २४ वर्ष तक शास्त्रों का अध्ययन करके लौटता है। वह स्वयं को पूर्ण ज्ञानी समझने लगता है। उसके अहंकार को देखकर उद्दालक पूछते हैं:
"किं त्वया तदनन्विष्टं येन श्रुतं श्रुतं भवति, अमतं मतं, अविज्ञातं विज्ञातम्?"
(छांदोग्य उपनिषद् ६.१.३)
"क्या तुमने उस सत्य को नहीं जाना, जिसे जान लेने पर अनसुना सुना हो जाता है, अदेखा देखा हो जाता है और अज्ञात ज्ञात हो जाता है?"
श्वेतकेतु आश्चर्यचकित होकर कहता है: "वह क्या है?"
तब उद्दालक उसे ब्रह्मविद्या का उपदेश देते हैं।
2. उपदेश की श्रृंखला: सृष्टि का एकत्व
उद्दालक ने नौ उदाहरणों के माध्यम से समझाया कि समस्त जगत की उत्पत्ति एक ही सत्ता (ब्रह्म) से हुई है:
(क) मृत्तिका-न्याय (मिट्टी का उदाहरण)
"यथा सोम्यैकेन मृत्पिण्डेन सर्वं मृन्मयं विज्ञातं स्यात्..."
(छांदोग्य ६.१.४)
"हे प्रिय! जैसे एक मिट्टी के ढेले को जान लेने पर सारी मिट्टी की वस्तुएँ जान ली जाती हैं... वैसे ही एक तत्व (ब्रह्म) को जानकर सब कुछ जान लिया जाता है।"
(ख) वृक्ष-न्याय (वृक्ष का उदाहरण)
"यथा सोम्यैकेन लोहमणिना सर्वं लोहमयं विज्ञातं स्यात्..."
(छांदोग्य ६.१.५)
जैसे लोहे की एक अणुक को जानकर सारा लोहा जान लिया जाता है, वैसे ही ब्रह्म को जानकर सब कुछ जान लिया जाता है।
इसी प्रकार आग, जल, फल, नमक आदि के उदाहरण देकर उद्दालक ने समझाया कि विविधता में एकता ही सत्य है।
3. "तत् त्वम् असि" (तू वही है) का रहस्य
अंत में, उद्दालक ने श्वेतकेतु को तीन बार समझाया:
"तत् त्वम् असि, श्वेतकेतो!"
(छांदोग्य ६.८.७, ६.९.४, ६.१४.३)
"हे श्वेतकेतु! तू वही (ब्रह्म) है।"
इस महावाक्य का अर्थ:
तत् (वह) → परब्रह्म (सर्वव्यापक सच्चिदानंद)।
त्वम् (तू) → जीवात्मा (तुम्हारा वास्तविक स्वरूप)।
असि (है) → दोनों एक ही हैं, भेद केवल भ्रम है।
यह अद्वैत (अ-द्वैत = दो नहीं) का सिद्धांत है, जो कहता है कि आत्मा और ब्रह्म एक ही हैं। जैसे:
नदी और समुद्र अलग दिखते हैं, पर दोनों जल ही हैं।
सोने के विभिन्न आभूषण अलग दिखते हैं, पर सब सोना ही हैं।
4. श्वेतकेतु की ज्ञानप्राप्ति
इस उपदेश के बाद श्वेतकेतु का अहंकार नष्ट होता है और उसे आत्मसाक्षात्कार होता है। वह समझ जाता है कि:
वह स्वयं ब्रह्म है (अहं ब्रह्मास्मि)।
संपूर्ण सृष्टि ब्रह्ममय है (सर्वं खल्विदं ब्रह्म)।
"तत् त्वम् असि" की दार्शनिक व्याख्या
यह महावाक्य वेदांत दर्शन के चार प्रमुख महावाक्यों में से एक है। इसकी तीन स्तरों पर व्याख्या होती है:
(१) व्यावहारिक स्तर (जीव-ईश्वर भेद)
तत् = ईश्वर (सगुण ब्रह्म), त्वम् = जीवात्मा।
अर्थ: "तुम्हारा अस्तित्व ईश्वर से ही है।"
(२) उपासना स्तर (एकत्व का बोध)
तत् और त्वम् एक ही तत्व के दो नाम हैं।
जैसे: "आकाश" और "घटाकाश" वास्तव में एक ही हैं।
(३) पारमार्थिक स्तर (शुद्ध अद्वैत)
कोई भेद ही नहीं, न जीव, न ईश्वर, केवल ब्रह्म ही सत्य है।
"अहं ब्रह्मास्मि" (मैं ब्रह्म हूँ) इसी की घोषणा है।
कथा का सारांश एवं शिक्षा
अहंकार का त्याग: शास्त्रीय ज्ञान से बड़ा आत्मज्ञान है।
एकत्व का दर्शन: विविधता के पीछे एक ब्रह्म ही सत्य है।
"तत् त्वम् असि" का सन्देश:
तुम्हारा वास्तविक स्वरूप शुद्ध चैतन्य (ब्रह्म) है।
शरीर, मन और नाम-रूप माया हैं, वास्तविक नहीं।
"यह आत्मा ब्रह्म है" (अयमात्मा ब्रह्म) – माण्डूक्य उपनिषद्
"मैं ही ब्रह्म हूँ" (अहं ब्रह्मास्मि) – बृहदारण्यक उपनिषद्
इस प्रकार, यह कथा वेदांत के अद्वैत सिद्धांत की मूलभूत शिक्षा देती है कि समस्त सृष्टि और जीव ब्रह्म के अंश नहीं, बल्कि स्वयं ब्रह्म ही हैं।
निष्कर्ष: "तत् त्वम् असि" केवल एक वाक्य नहीं, आत्मजागरण का मंत्र है। यह श्वेतकेतु की तरह हमें भी आमंत्रण देता है – अपनी आत्मा को पहचानो, ब्रह्म से एक हो जाओ, और जीवन के परम सत्य को अनुभव करो। यही अद्वैत वेदांत की आत्मा है – और यही सनातन सत्य।