प्राचीन भारत में, विदर्भ देश के राजा जनक के दरबार में याज्ञवल्क्य एक महान ऋषि के रूप में विख्यात थे, जिनका ज्ञान और तपस्या दूर-दूर तक प्रसिद्ध थी। उनकी दो पत्नियाँ थीं—कात्यायनी और मैत्रेयी। कात्यायनी सांसारिक सुखों और पारिवारिक जीवन में रुचि रखती थीं, जबकि मैत्रेयी एक गहन दार्शनिक और आत्मिक जिज्ञासु थीं, जिनका मन मोक्ष और आत्म-साक्षात्कार की ओर अग्रसर था। एक दिन, याज्ञवल्क्य ने वानप्रस्थ आश्रम में प्रवेश करने का निर्णय लिया, जो हिंदू जीवन के चतुर्थाश्रमों में से एक है, जहाँ व्यक्ति सांसारिक बंधनों से मुक्त होकर तपस्या करता है। इस संन्यास की तैयारी में, उन्होंने अपनी संपत्ति का बंटवारा करने का विचार किया।
याज्ञवल्क्य ने कात्यायनी को उनकी समृद्धि का एक हिस्सा दिया, जो उनके सांसारिक जीवन के अनुरूप था। फिर वे मैत्रेयी के पास गए और कहा, "मैत्रेयि, मैं अपनी संपत्ति का आधा भाग तुम्हें दे रहा हूँ। तुम इसे लेकर सुखपूर्वक जीवन व्यतीत करो।" मैत्रेयी, जो सांसारिक वैभव से परे थीं, ने एक अप्रत्याशित प्रश्न पूछा, "भगवन्, यदि इस पृथ्वी का समस्त वैभव मुझे दे दिया जाए, तो क्या इससे मुझे अमरता प्राप्त हो सकेगी?" यह प्रश्न याज्ञवल्क्य को चकित कर गया, और उन्होंने उत्तर दिया, "नहीं, मैत्रेयि। संपत्ति से केवल भोग और क्षणिक सुख ही प्राप्त होते हैं, अमरता नहीं।"
संवाद का गहराई में विकास
मैत्रेयी की जिज्ञासा और बढ़ी। उन्होंने पूछा, "यदि संपत्ति से अमरता नहीं, तो मुझे वह किस काम की? हे भगवन्, मुझे उस ज्ञान की शिक्षा दीजिए, जो मुझे मोक्ष की ओर ले जाए और मेरी आत्मा को शाश्वत सत्य से जोड़े।" याज्ञवल्क्य प्रसन्न हुए, क्योंकि उन्हें एक सच्चा शिष्य मिला, जो ज्ञान की खोज में था। उन्होंने मैत्रेयी को अपने समीप बैठाया और कहा, "तुमने सही प्रश्न किया है, मैत्रेयि। अब मैं तुम्हें आत्मा का रहस्य बताऊंगा, जो सांसारिकता से परे है और मोक्ष का मार्ग प्रशस्त करता है।"
मूल श्लोक (बृहदारण्यक उपनिषद् 2.4.1)
स होवाच मैत्रेयि यदिदं भगवति संपत्तिर्यस्यां त्वमियं सर्वमादाय भुञ्जीथाः किमेनां त्वं भोगेनाप्नुयाः इति।
स होवाच न वै तद्भोगेन संपत्तिरभिसंपद्यते मैत्रेयि।
(अनुवाद: याज्ञवल्क्य ने कहा, "मैत्रेयि, यदि यह समस्त संपत्ति तुम्हें दे दी जाए और तुम इसे भोगों, तो क्या इससे तुम संतुष्ट हो सकोगी?" मैत्रेयी ने कहा, "नहीं, संपत्ति से भोग तो मिल सकता है, परंतु संतुष्टि या अमरता नहीं।")
इसके बाद याज्ञवल्क्य ने समझाया कि सांसारिक समृद्धि का आकर्षण मायावी है। उन्होंने कहा, "जो कुछ प्रिय है—पति, पत्नी, पुत्र, धन—वह आत्मा के कारण प्रिय है, न कि आत्मा प्रिय के कारण। आत्मा ही सच्चा सुख और शाश्वत सत्य है।" उन्होंने मैत्रेयी को आत्मा और ब्रह्म की एकता का उपदेश दिया, जो सभी भेद—जाति, लिंग, और स्थिति—से परे है।
मूल श्लोक (बृहदारण्यक उपनिषद् 2.4.5)
न वा अरे पत्यु: कामाय पतिः प्रियो भवति, आत्मनस्तु कामाय पतिः प्रियो भवति।
न वा अरे जायाया कामाय जाया प्रिया भवति, आत्मनस्तु कामाय जाया प्रिया भवति।
(अनुवाद: हे मैत्रेयि, पति पति के लिए प्रिय नहीं होता, अपितु आत्मा के लिए प्रिय होता है। पत्नी पत्नी के लिए प्रिया नहीं होती, अपितु आत्मा के लिए प्रिया होती है।)
आत्मा का रहस्य और दार्शनिक गहराई
याज्ञवल्क्य ने मैत्रेयी को आत्मा के स्वरूप को समझाया। उन्होंने कहा, "आत्मा ही दृष्टा है, श्रोता है, विचारक है और ज्ञाता है। जब तक मनुष्य अपने को शरीर और इंद्रियों से अलग नहीं समझता, तब तक वह अज्ञान में डूबा रहता है। आत्मा का साक्षात्कार ही मोक्ष का मार्ग है, जहाँ जन्म-मृत्यु का चक्र समाप्त होता है।" उन्होंने ब्रह्मांड की सृष्टि और विलय की प्रक्रिया को भी समझाया, जो आत्मा के साथ एकाकार है।
मूल श्लोक (बृहदारण्यक उपनिषद् 2.4.14)
स यथोर्णनाभिः सृजते गृह्णाति च, एवं एव खलु इदं सर्वं ब्रह्मणा सृज्यते गृह्यते च।
(अनुवाद: जैसे मकड़ी अपने जाल को रचती है और फिर उसे ग्रहण करती है, वैसे ही यह समस्त ब्रह्मा द्वारा सृजित और ग्रहण किया जाता है।)
इस श्लोक के माध्यम से याज्ञवल्क्य ने बताया कि जैसे मकड़ी अपने जाल को अपने भीतर से उत्पन्न करती है, वैसे ही ब्रह्म ही इस सृष्टि का सर्जक और संहारक है, और आत्मा उस ब्रह्म का अंश है।
अंतिम संवाद और मोक्ष का मार्ग
कुछ समय बाद, याज्ञवल्क्य वन में तपस्या के लिए चले गए। मैत्रेयी, जो अब एक साध्वी के रूप में जीवन व्यतीत कर रही थीं, ने उनसे अंतिम बार मिलने की इच्छा जताई। याज्ञवल्क्य ने उन्हें फिर से आत्मा के सत्य का उपदेश दिया। उन्होंने कहा, "मृत्यु के बाद आत्मा शरीर से मुक्त होकर ब्रह्म में विलीन हो जाती है। जो इस सत्य को जान लेता है, वह संसार के बंधनों से मुक्त हो जाता है।"
मूल श्लोक (बृहदारण्यक उपनिषद् 4.5.6)
आत्मा वा अरे द्रष्टव्यः श्रोतव्यो मन्तव्यो निदिध्यासितव्यः।
(अनुवाद: हे मैत्रेयि, आत्मा को देखना चाहिए, सुनना चाहिए, सोचना चाहिए और ध्यान करना चाहिए।)
मूल श्लोक (बृहदारण्यक उपनिषद् 4.5.15)
स यथा सुप्तः पुत्रलोकं गच्छति प्राजापत्यं वा, एवं ह वाव एष एतं लोकं प्राप्नोति यः संन्यासेनात्मानं विद्यादवृश्चिं।
(अनुवाद: जैसे कोई सोते हुए पुत्रलोक या प्राजापत्य लोक में जाता है, वैसे ही वह इस लोक को प्राप्त करता है, जो संन्यास के द्वारा आत्मा को जान लेता है और अविच्छिन्न रहता है।)
ये श्लोक मैत्रेयी को सिखाते हैं कि आत्मा का साक्षात्कार संन्यास और ध्यान के माध्यम से संभव है, जो उन्हें मोक्ष की ओर ले जाता है।
मैत्रेयी का जीवन और प्रभाव
मैत्रेयी ने इस ज्ञान को अपने जीवन में उतारा और आत्म-चिंतन के पथ पर अग्रसर हुईं। उनकी जिज्ञासा और याज्ञवल्क्य का उपदेश न केवल उनके लिए, बल्कि आने वाली पीढ़ियों के लिए भी प्रेरणा का स्रोत बना। यह संवाद हमें सिखाता है कि सच्चा ज्ञान वह है जो आत्मा को मुक्त करे, न कि जो केवल सांसारिक सुख दे।
निष्कर्ष
याज्ञवल्क्य और मैत्रेयी का संवाद बृहदारण्यक उपनिषद् की एक अमर कथा है, जो हमें आत्म-ज्ञान और मोक्ष के महत्व को समझाती है। यह संवाद एक पति-पत्नी के बीच का प्रेम नहीं, बल्कि गुरु-शिष्य के बीच ज्ञान के आदान-प्रदान का प्रतीक है। मैत्रेयी की जिज्ञासा और याज्ञवल्क्य का गहन उपदेश आज भी मानवता को आत्म-चिंतन, सत्य की खोज और शाश्वत शांति की ओर प्रेरित करते हैं। 2025 में, जब तकनीक और भौतिकवाद अपने चरम पर हैं, यह कथा हमें आत्मा के भीतर की शांति और सत्य की ओर लौटने का संदेश देती है।