चित्त की पांच अवस्थायें

 चित्त की पांच अवस्थायें।

चित्त की पांच अवस्थायें मानी जाती है : अर्थात् वह पांच स्तरों पर काम करता है। उनके नाम हैं: मूढ, क्षिप्त, विक्षिप्त, एकाग्र और निरुद्ध ।

 मूढ़

मूढ वह अवस्था है जिसमें तमोगुण की प्रबलता रहती है। मूढ़ चित्त केवल इन्द्रियों की सेवा में लगा रहता है। उसे और किसी बात में अभिरुचि नहीं होती । एक कहानी है कि किसी नगर में एक महात्मा रहते थे । उनका कहना था कि प्रत्येक मनुष्य ऊंचे प्राध्यात्मिक जीवन का अधिकारी है। उसी नगर में एक ऐसा व्यक्ति रहता था जिसका खाने पीने और इन्द्रियों के दूसरे धंधों के सिवाय और कोई काम नहीं था । किसी ने महात्मा जी से उसका नाम लेकर पूछा कि क्या आप उसको भी अध्यात्म के मार्ग पर चला सकते है ? उन्होंने उत्तर दिया, हां। परन्तु पहले तो उसको झूठ बोलना सिखला दो। अभी तो उसका चित्त इतना भी प्रयास नहीं करता जितना कि झूठ बोलने के लिए आवश्यक है।

 क्षिप्त

क्षिप्त का अर्थ है फेंका हुआ । क्षिप्त चित्त में रजोगुण का बाहुल्य होता है । वह एक जगह टिकता ही नहीं। कुछ न कुछ करते रहना यही उसकी चर्या है। ऐसा मनुष्य बैठकर अपने अच्छे बुरे कामों के परिणामों को भी सोच नहीं सकता ।

 विक्षिप्त

विक्षिप्त चित्त में रजोगुण के साथ साथ सत्त्वगुण का भी मिश्रण होता है। ऐसा चित बहुत सी बातों में लगा तो रहता है परन्तु कभी कभी किसी एक विषय पर अधिक देर तक केन्द्रीभूत भी हो जाता है और इसके साथ साथ अपने कामों के परिणामों की ओर भी ध्यान देने का प्रयत्न करता है।

 एकाग्र

यह शब्द तो सामान्य बोलचाल में भी माता है। एकाग्र का अर्थ है किसी एक विन्दु पर केन्द्रीभूत होना। एकाग्र चित्त में सत्वगुण की प्रधानता रहती है। वह किसी एक विषय पर बहुत देर तक टिकता है और प्रायः काम करने के पहले बुद्धि को उसके सम्बन्ध में विचार करने का अवसर देता है। साधारणतः इस शब्द का व्यवहार आध्यात्मिक जीवन के सम्बन्ध में किया जाता है। परन्तु एकाग्रता केवल माध्यात्मिक जीवन तक सीमित नहीं है। जिस समय गणित या विज्ञान का विद्वान् किसी गम्भीर समस्या पर विचार करता है उस समय उसका वित्त भी पूर्णतया एकाय होता है।

निरुद्ध

निरुद्ध का अर्थ है रोक दिया गया। जिसकी गति बन्द कर दी गयी हो वह निरुद्ध कहलायेगा। यदि किसी के चित्त की गति बन्द हो जाय अर्थात् उसमें वृत्तियों का उठना बन्द हो जाय, प्रज्ञानों का प्रवाह रुक जाय, तो वह चित्त निरुद्ध कहलायेगा । हम ऊपर चित्त के सम्बन्ध में जो लिख आये हैं उससे यह स्पष्ट है कि यदि क्षण भर के लिए भी चित्त का प्रवाह रुका तो फिर वह सदा के लिए रुक जायगा। जब तक संस्कार बचे हुए हैं तब तक नष्ट होनेवाला प्रज्ञान अपने संस्कार अपने परवर्ती को दे जायगा । जब तक संस्कार बचे हुए हैं तब तक प्रज्ञानों की धारा बहती रहेगी। जब हस्तांतरित करने को संस्कार बचेगा ही नहीं तब यह धारा रुकेगी। निरुद्ध शब्द के अर्थ को गहिराई के बिना समझे सूत्र का अर्थ स्पष्ट नहीं होता।

सत्यकाम की गो सेवा



बहुत समय पहले महर्षि हरिदुम के पुत्र गौतम अपने समय के सबसे महान शिक्षक थे। उनके गुरुकुल में देश के कोने-कोने से सैकड़ों विद्यार्थी विद्या सीखने आते थे। जिस समय यह चर्चा हो रही है, उस समय गुरुकुलों में छात्रों से कोई शुल्क नहीं लिया जाता था, उनके खाने-पीने, कपड़े आदि की व्यवस्था गुरु ही करते थे। इसका अर्थ यह नहीं है कि गुरु इतने धनी थे, बल्कि गुरुकुल में बड़े-बड़े राजा और धनाढ्य गृहस्थ उनकी आज्ञा से भोजन-वस्त्र से सदैव सहायता करते थे। 

गौतम के गुरुकुल में भीड़भाड़ का कारण यह था कि वे अपने शिष्यों से कभी अप्रसन्न नहीं होते थे। उनका स्वभाव बहुत ही दयालु था और वे अध्यापन और लेखन में बेजोड़ थे। लकड़ी जैसे जड़ मन वाले बच्चे भी एक दिन विद्वान होकर अपने यहाँ से घर लौट आते थे।

एक दिन एक दस-बारह वर्ष का बालक ब्रह्मचारी के वेश में गौतम ऋषि के आश्रम में आया, पर अन्य ब्रह्मचारियों की तरह उसके हाथ में न तो समिधा थी, न कमर में करधनी , न कंधे पर मृगचर्म, न ही उसके गले में यज्ञोपवीत। था। लेकिन लड़का स्वभाव से बड़ा होनहार और विनम्र दिख रहा था। गौतम के निकट जाकर उन्होंने दूर से ही प्रणाम किया और कहा- 'गुरुदेव! मैं आपके गुरुकुल में विद्या सीखने आया हूँ। मेरी माँ ने मुझे आपके पास भेजा है। मैं ब्रह्मचारी रहूंगा।  भगवान! मैं आपकी शरण में आया हूं, मुझे स्वीकार कीजिए।'

मासूम लेकिन होनहार बालक के ये शब्द गुरु गौतम के शुद्ध हृदय में अंकित हो गए। उनकी सादगी और प्रतिभा ने उन्हें थोड़ी देर के लिए विस्मित कर दिया! थोड़ी देर अपने छात्रों की मुस्कराहट देखने के बाद उन्होंने कोमल स्वर में पूछा- 'वत्स!  यहां शिक्षा के लिए आये, बहुत अच्छा किया है। क्या तुम्हारे पिता नहीं हैं? आपका गोत्र क्या है ? मैं तुम्हें ज्ञान अवश्य सिखाऊँगा।' गुरु का उपदेश सुनकर पास बैठे शिष्य कानाफूसी करने लगे। बालक ने तुरंत विनम्र स्वर में उत्तर दिया- 'गुरुदेव! मैंने अपने पिता को नहीं देखा है और उनका नाम भी नहीं जानता। मैं अपनी मां से पूछने के बाद बता सकता हूं। मुझे यह भी नहीं पता कि मेरा गोत्र क्या है। लेकिन गुरुदेव! यह बात मैं अपनी मां से पूछकर भी बता सकता हूं। मैं दिन-रात आपकी सेवा में रहूंगा और कड़ाई से ब्रह्मचर्य का पालन करूंगा।'

बालक की भोली-भाली बातें सुनकर गौतम के शिष्यों की मंडली में दबी-दबी हंसी फूट पड़ी। बगल में बैठे साथी के कान के पास अपना मुंह लगाते हुए एक शिष्य ने कहा- 'भाई। अब सुनो संसार में ऐसे भी लोग हैं जो अपने पिता और गोत्र का नाम नहीं जानते। फिर भी वह वेद पढ़ने आया है। ऐसा लगता है कि वह ब्राह्मण नहीं है!

ऋषि गौतम बालक की ओर दया की दृष्टि से देखकर बोले- 'बेटा! अब तुम आकर अपनी माता से अपने पिता का नाम और अपना गोत्र पूछो और शीघ्र आ जाओ। आपके उपनयन संस्कार में आपके पिता और गोत्र का नाम आवश्यक होगा, इसलिए मैं आपको परेशान कर रहा हूं, और कुछ मत सोचिए।

तेजस्वी बालक गुरुदेव के चरणों में मस्तक रखकर शिष्य समूह की ओर हाथ जोड़कर प्रणाम कर अपने निवास स्थान की ओर प्रस्थान किया।

दूसरे दिन प्रात: ।  वह तेजस्वी बालक आश्रम लौट आया और हाथ जोड़कर शिष्यों का अभिवादन किया। गौतम ने बैठने की आज्ञा देते हुए पूछा-'वत्स!  आप आ गए आपका उपवीत संस्कार शुभ मुहूर्त में शुरू कर देना चाहिए। क्या तुम अपनी माता से पिता के गोत्र व नाम  का नाम पूछ सके?"

बालक ने खड़े होकर उत्तर दिया - 'हाँ गुरुदेव ! मैं माँ से पूछके  आया हूँ। मां ने कहा है कि वह भी मेरे पिता का नाम नहीं जानती हैं। युवावस्था में वे अनेक साधु-संतों की सेवा में लगी रहीं, उन दिनों वे गर्भवती भी हुईं और गोत्र का नाम मेरी माता भी नहीं जानती जिससे गर्भ हुआ। उन्होंने कहा है कि गुरुदेव के पास जाओ और यह सब बातें ऐसे ही कहो। और यदि माता के नाम व गोत्र से उपवीत संस्कार करना संभव हो तो मेरा नाम जाबाला बतलायें। उसने इतना ही कहा। अब जो भी तुम्हारा भाग्य है।

शिष्यों की उत्सुक सभा में एक बड़ी हलचल हुई। उस बेहोश छात्र ने अपने बगल में बैठे एक मित्र से कहा- 'मुझे तो फौरन अंदाजा हो गया था कि दाल में जरूर कुछ काला है।' साथी बोला- 'जो भी हो भाई। बच्चा उज्ज्वल और सच्चा है। 

गौतम ने शिष्यों की ओर दृष्टि फेरते हुए कहा- 'बेटा! आपको ऐसे सच्चे और निडर बच्चे की तारीफ करनी चाहिए.' फिर लड़के को बैठने का इशारा करते हुए बोले- 'बेटा, तुम्हारी बातें सुनकर मुझे यकीन हो गया कि तुम सच्चे ब्राह्मण कुमार हो। मैं आपका नाम सत्यकाम रखता हूं। मैं तुम्हें एक शिष्य के रूप में स्वीकार करूंगा और तुम्हें सभी ज्ञान सिखाऊंगा। शिष्य, इस सत्यकाम का उपवीत संस्कार आज से ही प्रारंभ होगा, तुम सब  जाओ और सारी सामग्री एकत्र कर लो।'

गौतम की दृढ़ वाणी सुनकर शिष्य समूह चित्र की भाँति अविचलित रह गया। कुछ देर चुप रहने के बाद वह फुसफुसाया और कई झुंडों में बंटकर उपनयन समारोह के लिए सामग्री इकट्ठा करने के लिए इधर-उधर चला गया।

सत्यकाम का उपनयन संस्कार शुभ मुहूर्त में किया गया। गौतम की पत्नी ने मुंज की मेखला को अपने प्रिय शिष्य की कमर में डाल दिया। आज के समय में जबल का पुत्र होने के कारण उसका नाम जाबाल भी रखा गया। 

वह गौतम के गुरुकुल में जाबाल नाम से प्रसिद्ध हुआ। यद्यपि कई छात्र गौतम के प्रति उनके अटूट स्नेह से ईर्ष्या करते थे, फिर भी उनकी विनम्र वाणी और विनम्र स्वभाव के कारण उनमें भी उनके सामने कुछ भी कहने का साहस नहीं था।

यज्ञोपवीत को चार दिन बीत चुके हैं। पाँचवें दिन प्रात:काल हवन करके गौतम ने सत्यकाम को अपने पास बुलाया और अन्य शिष्यों से कहा, "पुत्र सत्यकाम! मैं तुम्हें सेवा का कार्य सौंप रहा हूँ, जिसके लिए तुम्हें दूर वन में जाना पड़ेगा गांव।" सत्यकाम ने हाथ जोड़कर कहा - "गुरुदेव! जैसी आपकी आज्ञा।  मुझे गुरुदेव की क्या सेवा करनी है?' गौतम की बातें सुनने के लिए शिष्य उत्सुक हो गए। गौतम ने शाखाओं को घुमाते हुए कहा-'वत्स! वर्तमान में मेरे पास चार सौ गायें हैं, उन्हें यहां ठीक से खाना-पीना नहीं मिलता। कई तो बिल्कुल ही बूढ़े और निकम्मे हो गए हैं। मैं चाहता हूं कि आप उन सभी को अपने साथ ले जाएं और किसी सुदूर जंगल में जाएं और वहीं रहकर उनकी सेवा करें। जिस दिन उनकी संख्या चार सौ से बढ़कर एक हजार हो जाएगी, उसी दिन तुम्हारे लौटने पर तुम्हारा स्वागत होगा। कहो! क्या आप इसे स्वीकार करते हैं?'

सत्यकाम का हृदय प्रसन्नता से भर गया, उसने हाथ जोड़कर कहा- 'गुरुदेव! आपकी आराधना ही मेरे जीवन का लक्ष्य है। मैं खुशी के साथ तैयार हूं, मुझे जाने की इजाजत दीजिए।'

शिष्यों में से एक भावुक शिष्य बोला- 'गुरुजी! यह बेचारा छोटा लड़का अकेले चार सौ गायों की देखभाल कैसे कर पाएगा? दो सहायकों को इसके साथ और काम करने दो।' 

सत्यकाम ने कहा- 'भाई! मुझे सहायकों की आवश्यकता नहीं है, गुरुदेव अनुग्रह ही  मेरा सहायक है। सबसे पहले, एक गाय चराने वाले के शिष्य ने अपने मित्र से पूछा कि उसकी मदद कौन कर रहा है।

बात कर रहा था, कान में बोला-'अजी! जाने भी दो। मंदबुद्धि मरेगा। इतनी सारी गायों की देखभाल करना कोई आसान काम नहीं है, गुरुजी की गायें उन्हें कितना परेशान करती हैं, इसका अभी उन्हें कोई अनुभव नहीं है।'

दूसरे साथी ने कहा- 'भैया सत्यकाम! इधर तुम कह रहे हो, पर उधर जब जंगली जानवर गायों पर टूट पड़ें, तो अकेले क्या करोगे?' सत्यकाम ने कहा - 'गुरुदेव का आशीर्वाद उन हिंसक जंगली जानवरों को भी मारकर भगा देगा। मैं उनसे बिल्कुल नहीं डरता।

गौतम की शिष्य मंडली के सभी छात्र एक दूसरे को घूरने लगे। अब किसी में इतना सब्र नहीं है और सत्यकाम का मजाक उड़ा सके। गौतम ने उनके सिर को सहलाते हुए कहा- 'बेटा! आपके हौसले और हौसले की जितनी तारीफ की जाए कम है। संसार में आपके लिए कोई भी कठिन कार्य नहीं होगा। हिमालय की दुर्गम चोटी और अथाह समुद्र की प्रचंड लहरें आपके रास्ते में एक बाधा  भी नहीं डाल सकती हैं, जंगली जानवरों में क्या शक्ति है? ,

सब चुप थे। गौतम ने सत्यकाम को गले से लगाकर आशीर्वाद दिया। वह सभी गौऔ  के साथ वन जाने को तैयार हो गया। उन्होंने गुरुदेव के चरणों की धूलि अपने माथे पर लगाकर शिष्यों को प्रणाम किया। सब दंग रह गए। गौशाला की ओर जाते समय तेजस्वी सत्यकाम ने गुरु पत्नी को प्रणाम किया और विधिवत घर का आशीर्वाद लेकर वन को प्रस्थान किया। उनके हाथ में एक छड़ी, कंधे पर हिरण की खाल और कमंडल था और उनके कंधे पर गुरु पत्नी द्वारा दिए गए मार्ग के लिए कुछ उपहारों की एक गठरी थी, जो लटकी हुई थी और चार सौ दुर्बल गायें उनके साथ चल रही थीं।

गायों को साथ लेकर सत्यकाम ऐसे सुन्दर वन में गया, जिसमें गायों के लिए चारे, पानी और छाया की अनेक सुविधाएँ थीं। वह कभी आगे चलता है तो कभी पीछे। वह किसी गाय की पीठ थपथपाते और किसी का मुंह चूमते थे। छोटे बछड़ों के साथ उनका भाईचारा स्नेह था; वह सड़क पर जहाँ भी जाता, उसी भोर में पूरा झुंड इकट्ठा हो जाता। इस प्रकार चलते-चलते वह उस सुन्दर, सघन, हरे-भरे प्रदेश में पहुँच गया, जिसकी लालसा में वह आश्रम से चला आया था। वहां पहुंचने पर उन्होंने देखा एक समतल मैदान है, जिसमें लंबे-लंबे वृक्ष उग आए हैं, छायादार वृक्षों की पंक्तियाँ हैं, और छः ऋतुओं में शुद्ध जल से भरी हुई अनेक पवित्र बावड़ियाँ हैं। वहाँ न तो बहुत अधिक सर्दी होती है और न ही चिलचिलाती गर्मी जैसे दूर से ही गायों सहित शीतल, मन्द, सुगन्धित दिन के शान्त उसका स्वागत कर रही हों। उस रमणीय वन प्रदेश में पहुँचकर सत्यकाम ने गायों को रहने की अनुमति दे दी और स्वयं अपने लिए एक छोटी सी झोपड़ी की व्यवस्था करने लगा। कुटिया तैयार कर तन मन से गुरु की आज्ञा में लग गया। दिन-रात गायों को चराने के अलावा और क्या काम था उसके पास? वह पास की घास के रमणीय सृजन सौंदर्य में इतना मग्न हो गया, वह गायों के स्नेह में इस कदर मग्न हो गया कि उसे एक क्षण के लिए भी अपना अकेलापन याद नहीं आया। एक-एक करके दिन बीतते गए। जंगल को स्वच्छ प्राकृतिक सुविधा में गो की संख्या आशा से अधिक बढ़ गई।  इस प्रकार सत्यकाम का आश्रम गुरुकुल बन गया। गोओ  के छोटे-छोटे बछड़ों ने उछल-उछल कर उसे आगे-पीछे से घेर लिया। सत्यकाम जब भी उन्हें अलग-अलग नामों से पुकारता था, कभी उनके मुख को चूम लेता तो कभी मीठे-मीठे थप्पड़-चप्पे देकर उन्हें डाँटता। यदि संयोग से कोई गाय बीमार पड़ जाती, तो वह तन-मन से उसकी सेवा में लग जाता, जब तक वह ठीक नहीं होती, अन्न-जल तक ग्रहण नहीं करता। बड़े-बड़े बलवान हाथियों के समान लम्बे-लम्बे बैलों की भीड़ को देखकर सत्यकाम की प्रसन्नता का ठिकाना न रहा। इस तरह उनके चार-पांच साल बीत गए। चार सौ गौऔ  की संख्या सत्यकाम से अनजाने में एक हजार से अधिक हो गई थी, लेकिन उन्हें इसका पता नहीं था। वह कभी उनकी गिनती नहीं करता था, जिस पर तुरंत ध्यान जाता, क्योंकि वह अपना जीवन उस अपार संतोष और शांति के साथ जी रहा था, जिसमें हिसाब-किताब रखने के बाद मनुष्य का ध्यान केवल काम पर ही रहता है।

एक दिन सवेरे-सवेरे सत्यकाम सूर्य को अर्घ्य दे रहा था कि वह उसके पीछे खड़ा हो गया।

बैलों की भीड़ में से मनुष्य जैसी वाणी आई - 'सत्यकाम!' उस निर्जन वन में सत्यकाम के लिए ऐसी मानवीय वाणी चार-पाँच वर्षों के लिए अपरिचित हो गई थी। आवाज सुनते ही उनका ध्यान भंग हो गया। पीछे मुड़कर देखता है, एक शक्तिशाली लंबा वृषभ आगे बढ़ रहा है और उसे घूर रहा है। सत्यकाम ने कहा- 'भगवन्! क्या आज्ञा  है?'

वृषभ ने कहा-'वत्स! अब हमारी संख्या हजार के ऊपर जा रही है। अब हमें आचार्य जी  के पास ले चलो। आपकी अटूट सेवा से, आप ब्रह्म के ज्ञान के अधिकारी बन गए हैं। मुझे देखो, मैं तुम्हें ब्रह्म के ज्ञान का एक पाद का उपदेश दूँगा।

सत्यकाम ने हाथ जोड़कर कहा - 'प्रभु! आपके उपदेशों को ग्रहण करने से मेरा जीवन सफल होगा।'

सत्यकाम को ब्रह्मज्ञान के एक अंश का उपदेश देकर वृषभ ने कहा- 'वत्स ! इस भाग का नाम प्रकाशवान है। अगला  उपदेश आपको स्वयं अग्नि देगा।' इतना कहने के बाद वृषभ की मानवीय आवाज बंद हो गई और वह एक आम वृषभ की तरह भीड़ में जाकर जुगाली करने लग गया ।

ब्रह्मज्ञान का एक अंश ग्रहण करने के बाद सत्यकाम का मस्तक दीपक के समान तेज और अत्यधिक हो गया; हृदय में शांति छा गई और मन अलौकिक संतोष से भर गया।

दूसरे दिन प्रात:काल जब सत्यकाम गायों को लेकर गुरुकुल की ओर जाने लगा तो वहां के पशु, पक्षी, वृक्ष और लताएं दु:खी हो उठीं। रास्ते में उसने सूर्यास्त के समय पहली रात बिताने के विचार से एक मनोरम स्थान पर डेरा डाला। और गायों के शांति से बैठने के बाद वह आग में काम करने बैठ गया। जैसे ही पहली आहूति डाली गई, यज्ञ की अग्नि की लौ से अग्नि नारायण प्रकट हुए और कहा - 'वत्स सत्यकाम!'

सत्यकाम ने हाथ जोड़कर गर्व भरे स्वर में कहा- 'भगवन्! क्या आज्ञा है अग्नि नारायण ने कहा- 'सौम्य! आप ब्रह्मज्ञान के पूर्ण अधिकारी हैं, मैं तुम्हें ब्रह्मज्ञान का दूसरे  पाद का उपदेश दूंगा । इसका नाम अनंतवान है, अगला उपदेश आपको हंसा बताएगा।'

सत्यकाम ने कहा- 'भगवन्! आपकी शिक्षाओं से मेरा जीवन धन्य हो जाएगा।'

सत्यकाम को ब्रह्मज्ञान के दूसरे भाग का उपदेश देने के बाद अग्नि नारायण गायब हो गए। सत्यकाम की सांसारिक इच्छाएँ अग्नि नारायण की शिक्षाओं में विलीन हो गईं। रात भर वह उसी प्रवचन के बारे में सोचता रहा। दूसरे दिन सुबह होते ही वह गोसमूह को  साथ लेकर आगे बढ़ गया और शाम को एक सुंदर झील के सुरम्य तट पर रुक गया। गाऔ  के निवास की व्यवस्था करके उन्होंने पहले दिन की भांति यज्ञ की अग्नि प्रज्वलित की और ध्यान में लीन हो गए। इतने में पूर्व दिशा से एक सुंदर हंस उड़ता हुआ आया और सत्यकाम के पास बैठ गया और बोला - 'सत्यकाम।'

सत्यकाम की समाधि भंग हो गई। हाथ जोड़कर उसने गदगद स्वर में विनयपूर्वक कहा- 'भगवन्! आदेश क्या है? हंस ने पंख फड़फड़ाकर कहा- 'वत्स सत्यकाम! आपकी सेवा से प्रसन्न होकर मैं आपको ब्रह्मज्ञान के तीसरे चरण का उपदेश देने आया हूं। उसका नाम ज्योतिष्मान है, इसके बाद एक जलपक्षी तुम्हारा 'करेगा'।

सत्यकाम धन्य हो गया। कहा-'भगवन्! आपके उपदेश रूपी अमृत का पान करने से मेरे जीवन की बाधा दूर होगी।

हंस सत्यकाम को ब्रह्मज्ञान के ज्योतिष्मान नामक अंश का उपदेश देकर वे वहीं अदृश्य हो गए। सत्यकाम अब एक वास्तविक ज्योतिषी बन गया है। तेज के अतुलनीय तेज से उसके शरीर का तेज और भी अधिक दिखाई देने लगा। ज्योतिषी रात भर ब्रह्म की साधना में लीन रहा और अगले दिन सुबह गायों को भगा कर गुरुकुल की ओर भागा। शाम हो गई और सत्यकाम ने पास की बावली में एक विशाल बरगद के पेड़ के नीचे बाकी गायों की व्यवस्था कर दी।

 हमेशा की तरह हवन के लिए अग्नि प्रज्ज्वलित करने के बाद आहुती डालते समय उसे एक जलमुर्गी  मिली  और वह सत्यकाम के सामने खड़ी हो गई और प्रेमपूर्ण स्वर में बोली- 'वत्स सत्यकाम!'

सत्यकाम उठकर खड़ा हो गया। और हाथ जोड़कर विनम्र स्वर में कहा- 'भगवती!  क्या आज्ञा है?"

जल मुर्गी ने सत्यकाम को बैठने का आदेश दिया और कहा- 'वत्स! आपकी साधना  अब पूरी  हो गयी  है। आप ब्रह्मज्ञान के अधिकारी बन गए हैं, इसलिए बैल के रूप में वायु, साक्षात अग्निदेव और हंस के रूप में सूर्य ने आपको ब्रह्मज्ञान के तीन चरण सिखाए हैं। अब मैं आपको ब्रह्मज्ञान के अंतिम चौथे चरण का उपदेश दूंगी । इसका नाम आयतनवान है। इसे आत्मसात करने के बाद तुम ब्रह्मज्ञान के पूर्ण विद्वान हो जाओगे।

सत्यकाम सावधान होकर सुनने लगा। उसे ब्रह्मज्ञान का उपदेश बनाकर जल मुर्गी उड़ गई। रात भर सत्यकाम पाठ के चिंतन में लीन रहा। दूसरे दिन प्रात:काल गायों को साथ लेकर वह गुरु के आश्रम की ओर चल पड़ा और संध्या होने में अभी कुछ समय था। आश्रम में गायों की एक लंबी भीड़ को देखकर गौतम का हृदय हर्ष से भर गया। उन्हें गायों की संख्या में वृद्धि से अधिक खुशी सत्यकाम की सफलता से मिल रही थी।

उनकी सेवा, धैर्य, निष्ठा और लगन ने सभी को आकर्षित किया। बैठने की आशा देकर गौतम ने सत्यकाम से कहा-'वत्स! आपके चेहरे की शांति और आपके शरीर की चमक से, मुझे यकीन है कि आप न केवल हमारे खाली सत्यकाम हैं, बल्कि सेवा के कारण ब्रह्मतेज का एक हिस्सा भी आप में गिर गया है। क्या वन में किसी गुरुचरण की कृपा प्राप्त हुई?

सत्यकाम ने कहा- 'गुरुदेव! रास्ते में चार ऐसे दिव्य प्राणियों ने मुझे ब्रह्मज्ञान का उपदेश दिया, जो मुझ जैसे एक से भी अधिक तेजस्वी प्रतीत होते थे।'

गुरु के पूछने पर सत्यकाम ने मार्ग की सारी बातें गौतम को कह सुनाईं। गौतम ने ससम्मान स्वर में कहा-'वत्स! सत्य का आपका अभ्यास आपको महान सफलता के द्वार पर ले आया है। तुम सौभाग्यशाली हो । तुम जैसे पुत्र-रत्न पाकर ही पृथ्वी का भार कम हो सकता है। तात! अपने अध्यापन जीवन में मुझे आप जैसा ईमानदार, अच्छा चरित्र और विनम्र छात्र कभी नहीं मिला। आपकी सेवा भावना और ज्ञान की प्यास की जितनी तारीफ की जाए कम है।


और सत्यकाम गुरु गौतम के अमृतमय स्तुति-वाक्यों को सुनकर मैं कृतज्ञता के बोझ से अभिभूत हो गया। उन्हें आभास हुआ कि हमारे गुरुदेव कितने दयालु महात्मा हैं। हाथ जोड़कर बोला - 'गुरूदेव ! आपके आशीर्वाद और शुभकामनाओं का फल मुझे मिल गया, नहीं तो मेरी योग्यता ही क्या थी? अगर आप जैसे गुरु के पास रहकर मैंने कुछ सीखा है तो इसमें मेरी क्या भूमिका है? यद्यपि मैंने ब्रह्मज्ञान के चारों अंगों की शिक्षाओं को भली-भाँति स्वीकार किया है, परन्तु आपके द्वारा दिये गये ज्ञान से ही मुझे इसमें सफलता प्राप्त होगी। मुझे चाहिए। कि तुम मुझे उनमें से काफी कुछ फिर से सिखाओ। मुझे आपकी शिक्षा के बिना पूर्ण शांति नहीं मिल रही है।'

इस प्रकार विनम्र सत्यकाम को गौतम ने  कहा- 'वत्स! ब्रह्मविद्या का जितना उपदेश आपने प्राप्त किया है, यह उसका परम तत्व है, अब संसार में कुछ भी आपके लिए अज्ञेय नहीं है। 

यह सब
आपकी गौ सेवा का महान पुण्य फल है। उन्हीं के आशीर्वाद से तुम्हें यह सिद्धि प्राप्त हुई है।'

सत्यकाम ने अपना सिर गुरु के चरणों में रखा और गर्व भरे स्वर में कहा- 'लेकिन गुरुदेव! आपकी बड़ी कृपा थी कि मुझे उस गाय की सेवा का अवसर मिला !


छांदोग्य उपनिषद से।

देवताओं की शक्ति परीक्षा


बहुत समय पुराणी बात है जब देवताओं और असुरों की अक्सर नहीं बनती थी। अक्सर उनके बीच छोटी-छोटी बातों पर लड़ाई-झगड़ा होता रहता था। एक बार यह अनवन बहुत बढ़ गया और दोनों ओर से घोर युद्ध की तैयारी होने लगी। देवताओं के राजा इंद्र ने अग्नि, वायु आदि बलवान देवताओं की सहायता से असुरों का डटकर सामना किया। संयोग की बात सभी राक्षसों का वध हो गया। जो बच गए, वे देश छोड़कर भाग गए। इस लड़ाई से देवताओं की विजय हुयी, चारों ओर उनके पराक्रम की प्रशंसा होने लगी। यूं तो इस युद्ध में सभी देवताओं ने अपने प्राणों की आहुति देकर पराक्रम दिखाया था, लेकिन इसमें अग्नि और वायु का बहुत बड़ा हाथ था। जो कर्म करता है, वह नाम भी चाहता है। नाम का ऐसा लालच है कि लोग अपनी जान की परवाह किए बिना बड़े-बड़े काम कर बैठते हैं। देवताओं को भी बहुत प्रसिद्धि मिली। 

सारी दुनिया में उनकी बहुत स्तुति हुई, भगवान को छोड़कर सभी देवताओं की पूजा करने लगे। इस सम्मान को पाकर देवताओं को बहुत गर्व हुआ। वे सोचने लगे कि अब संसार में हमसे बढ़कर कोई नहीं है। पहले वह भगवान की भक्ति में बहुत मन लगाते  थे , लेकिन जब उसने देखा कि सारा संसार उसकी पूजा करता है, तो किसी की पूजा करने से क्या फायदा! इस विजय के घमण्ड से मदहोश होकर वे इतने पथभ्रष्ट हो गये कि अपने ही मुँह से अपनी प्रशंसा करने लगे। पहले जहाँ वे सृष्टि के प्रत्येक कार्य में ईश्वर के दर्शन करते थे, वहाँ अभिमान के कारण दिखावटी पूजा-पाठ करने के बाद भी उन्हें अपने हृदय में परम प्रकाश का दर्शन दुर्लभ हो गया। उसके हृदय से परमेश्वर की सर्वशक्तिमान शक्ति में विश्वास पूरी तरह से हट गया। वह स्वयं राक्षस बन गए ।

भगवान हमेशा अपने भक्तों के लिए चिंतित रहते हैं। जैसे पिता से प्रिय पुत्र का दुर्भाग्य कभी नहीं देखा जा सकता, वैसे ही भगवान के मन में भी देवताओं का यह अभिमान बड़ी चिंता का कारण बना। उन्होंने सोचा कि ये देवता सचमुच गर्व से मूर्छित हो गए हैं। अहंकार के नशे में ये कुछ भी नहीं समझ पा रहे हैं कि वास्तव में हमें हो क्या रहा है। यदि उन्हें समय रहते चेताया न गया तो इतने दिन हमारी सेवा करने का क्या फल होगा! 

यदि मैं इस समय उनके इस कुकर्म को सहन कर लूँ तो इसका परिणाम यह होगा कि वे सब भी असुरों की तरह नष्ट हो जाएँगे और फिर सारा संसार नरक बन जाएगा। विजय पाकर उनमें जो अहंकार घुस गया है, वह सबको नष्ट करके अवश्य ही छूटेगा। जो बड़े हो जाते हैं वे ऐसी जीत पाकर पागल नहीं होते बल्कि और भी विनम्र हो जाते हैं। वृक्ष की डालियाँ भी फल लगने पर झुक जाती हैं। ऐसा विचार कर भगवान को देवताओं का अहंकार दूर करने का एक अच्छा उपाय सूझा।

यह एक सुखद सुबह थी। अमरावती पुरी के नंदनवन में इंद्र का दरबार लगा था। सभी देवतागण अपने-अपने अभिमान का बखान करते हुए आपस में झगड़ रहे थे कि आकाश के मध्य से एक परम तेजस्वी यक्ष पुरुष नीचे पृथ्वी पर उतरता दिखायी देता है। उस समय चारों दिशाओं में कोहराम मच गया। देवताओं के नेत्रों की चमक फीकी पड़ने लगी। अग्नि भी, जो अपने ऐश्वर्य में बहुत शृंगार लिए बैठा था, उस परम ऐश्वर्य से मलिन हो गया। देवताओं की हंसी अचानक बंद हो गई। सबकी खुली हुई आँखें उस परम तेजोमय यक्षपुरुष की ओर लगी थीं जो उनके सामने दिखाई दे रहा था। उनके परम प्रताप से सबका मुख पीला पड़ने लगा। कुछ देर तक सब मौन रहे और यह देखकर देवराज इन्द्र की सारी सभा में सन्नाटा पसर गया।

अंत में सभी देवताओं ने अग्नि से उस परम तेजस्वी यक्ष पुरुष का रहस्य जानने की बड़ी विनती की, क्योंकि वह भी सबसे तेजवान था। पिछले महायुद्ध में उसके पराक्रम का भय सभी देवताओं पर जम गया था। कुछ देर तक तो अग्नि इधर-उधर टालमटोल करता रहा, पर जब देवराज इन्द्र के आग्रह से तो वह विवश होकर वहाँ से उस तेजस्वी पुरुष का पता लगाने के लिए चल पड़ा ।

 असहाय अग्नि से हारकर यक्ष पुरुष के पोर धीरे-धीरे हिलने लगे, लेकिन थोड़ी दूर भी न पहुंच सके कि उसे बुरा लगने लगा। उनकी सांसें बिल्कुल बंद हो गईं। प्रकाश की आंखों के अलावा उस यक्ष पुरुष की आकृति भी धीरे-धीरे ओझल होने लगी । तेज की भयानक गर्मी से उसका शरीर जलने लगा। लेकिन क्या करें मजबूर होकर भी पास जाना पड़ा। किसी तरह अग्नि उस यक्ष पुरुष से कुछ ही दूरी पर पहुंचे, पर वहां जाकर भी बोलने का साहस न हुआ। कुछ देर आंखें बंद किए वह असहनीय गर्मी सहते हुए किसी तरह वहीं खड़ा रहा।

भगवान की दया थी। अपनी मंद मुस्कान से प्रकाश और दिशाओं को आलोकित करते हुए बोले- 'भाई! तुम कौन हो ? यहाँ इस तरह खड़े होने का आपका उद्देश्य क्या है?' अग्नि का तेज अभी इतना प्रबल नहीं था, अपनी वाणी को कृत्रिम रूप से गंभीर बनाते हुए उसने कहा- 'मेरा नाम अग्नि है। कुछ मुझे जातवेद भी कहते हैं। मैं जानना चाहता हूं कि तुम कौन हो?' भगवान् ने देखा कि अग्नि का स्वर बनावटी है और उसमें अभिमान की गंध रत्ती भर भी कम नहीं हुई है। भीतर की बातों को बाहर निकालने के लिए उसने पूछा- 'भैया अग्नि! क्या आप मुझे बता सकते हैं कि आपका काम क्या है? उस तेजस्वी पुरुष के इन विनम्र शब्दों से अग्नि  को और प्रोत्साहन मिला। आँखें खोलने का प्रयत्न करते हुए उसने कहा-'आश्चर्यजनक पुरुष! क्या तुम अग्नि  के पराक्रम को नहीं जानते? सारे संसार को एक क्षण में भस्म करने की शक्ति मुझमें है। धरती की तो बात ही क्या, आकाश के जितने भी तारे हैं, वे भी हमारे तेज के पास एक क्षण भी नहीं रह सकते।'

भगवान ने देखा कि अग्नि का दिमाग अभी ठीक नहीं हुआ है। उसने जमीन से एक तिनका उठाकर आग की तरफ फेंका और कहा- 'अग्निदेव! मैं वास्तव में नहीं जानता कि आप कुछ भी कैसे जला सकते हैं। इसलिए तुम इस तिनके को जलाकर मुझे अपना पराक्रम दिखाओ, तब प्रभु ने अग्नि के जल से ये बातें कहकर अग्नि के शरीर से प्राण के तेजोमय रूप को अपने में खींच लिया।

अग्नि अपनी सारी वीरता को याद करके वह उस तिनके को जलाने को तैयार हो गया, पर उसका हौसला अंदर से टूट चुका था। वह तिनका, जो जरा सी आहट से भस्म हो सकता था, आग के सामने उसी प्रकार पड़ा था, मानो उनका उपहास कर रहा हो। अग्नि के सारे मानसिक प्रयास व्यर्थ हो गए, लेकिन तिनके का एक सिरा भी नहीं बुदबुदाया। देर हो रही थी, पर तिनका ज्यों का त्यों पड़ा रहा। दूसरी ओर, उस व्यक्ति का तेज और भी भयानक हो गया, और निसत्व भग्नी का शरीर जलने लगा। तब अग्नि चुपचाप पीछे हट गए और किसी तरह वापस देवताओं के पास पहुंचे। उसकी आंखें नीचे की ओर धंस गई थीं और उसका चेहरा और पहले की चमक गायब हो गई थी।

इन्द्र सहित देवताओं ने अग्नि को अपने बीच मृत व्यक्ति के समान निर्जीव खड़ा देखा। न बुलाने पर बोलता है और न खुद कुछ कहना चाहता है। उसका सारा तेज नष्ट हो गया है, आंखों की कुर्सियां ​​नीचे धंस गई हैं और तेजस का चेहरा पीला और पीला पड़ गया है। देवराज ने अग्नि को बहुत अधिक परेशान करना उचित नहीं समझा। सांत्वना भरे स्वर में स्नेह जताते हुए कहा, अग्नि भाई! कुछ तो बताओ, इसमें शर्म की क्या बात है? कुछ देर तक हिचकिचाते हुए अग्नि को सिर नीचा करके कहना पड़ा- 'देवराज! मैं बहुत प्रयत्न करने पर भी उस तेजस्वी पुरूष का कुछ पता न लगा सका।  मेरे पास पता लगाने की क्षमता नहीं है।' इन आशाहीन बातों से देवसभा अग्नि अत्यंत भयभीत हो उठी। 

सब चुप हो गए कुछ देर चुप रहने के बाद इंद्र ने वायु की ओर देखा। इससे उनका भी बुरा हाल हो गया था, क्योंकि कुछ समय पहले आग लगने के बाद वे बहादुरी के लंबे-लंबे डींगे मारने में भी सबसे आगे रहे थे। इंद्र की आंखों में अपना मोर देखकर वह दूसरे की ओर देखने लगा। लेकिन राजा को इसका फायदा उठाना पड़ा। सभा का सन्नाटा तोड़ते हुए देवराज ने पुकारा 'वायु! मैं समझता हूँ कि उस यशस्वी यक्षपुरुष को ढूँढ़ने में तुम्हें कोई कठिनाई नहीं होगी। आप इस चराचर जगत के समस्त प्राणियों में सबसे शक्तिशाली हैं। कोई तुम्हारे बिना एक पल भी नहीं रह सकता। जाओ देखो कौन है ये ?' देवराज कभी भी अपने साथियों की इतनी तारीफ नहीं करते वायु का गिरा मन हरा हो गया। वह जाने के लिए तैयार हो गया और धागे बढ़ गए।

कुछ दूर जाकर उस तेजोमय पुरुष के तेज को निहारना पवन के लिए यह बहुत मुश्किल हो गया। किसी तरह चलकर वह उसके पास पहुंचा वह उठ खड़ा हुआ, पर पूछने का साहस भी न हुआ।

कुछ देर वायु को उसकी दीन अवस्था में खड़ा करके उस तेजस्वी पु ने पूछा- 'भैया! तुम कौन हो ? यहाँ आपके आगमन का उद्देश्य क्या है?' इससे वायु  को कुछ राहत मिली। शरीर को जीवित करने का प्रयत्न करते हुए उसने कहा - 'सौम्य ! मेरा नाम वायु है। सारे संसार का जीवन मेरे हाथ में है। क्या तुम मुझे नहीं जानते मैं समस्त पृथ्वी की सुगन्ध अपने में बहाता हूँ, इसीलिए कुछ लोग मुझे गंधवाह  भी कहते हैं। आकाश में दुनिया में और कोई नहीं चल सकता, लेकिन मैं वहां बिना किसी बाधा के चलता हूं, इसलिए मेरा नाम मातरिश्वा सभी जानते हैं।  क्या तुमने अब तक मेरा नाम भी नहीं सुना?"

मुस्कुराते हुए, यक्ष रूप दिव्य प्रभा  ने वायु के बनावटी चेहरे पर एक नज़र डाली। भौहें पूरी तरह से बंद थीं। नसों में तनाव था। तेजस्वी ने कहा- 'भाई! कहीं तो तुम्हारा नाम सुना होगा; लेकिन काम देखना चाहते हैं। क्या आप हमें अपने काम के बारे में कुछ बता सकते हैं?' वायु को विश्वास हो गया कि जो मुझे नहीं जानता, वह मेरा भी आदर करेगा। उसके सामने अपना काम दिखाना ठीक है। स्वर को कुछ गम्भीर बनाते हुए वे बोले- 'मैं सारी सृष्टि को हिला सकता हूँ। मैं घास के तारों और ग्रहों को गिरा सकता हूं। इन पर्वतों या वृक्षों का क्या बल है, जो क्षण भर के लिए भी मेरे सामने प्रकट नहीं होते।

यह सुनकर प्रभु ने अहंकारी वायु के पूरे शरीर को क्षण भर में खींच लिया, जिससे वह गिरने से बच गया। लेकिन वा डोंग ड्राइव करना और भाग जाना आसान नहीं था। वह तिनका अभी भी उसी जगह पर पड़ा हुआ था। भगवान ने कहा- 'भाई! यह तिनका आपके सामने पड़ा है कम से कम मुझे उड़ा दो, क्योंकि तभी मुझे तुम्हारी शक्ति पर कुछ विश्वास होगा। 

हवा ने अपनी पूरी ताकत झोंक दी, लेकिन तिनका ज्यों का त्यों पड़ा रहा। उस समय यह हिमालय से भी भारी हो गया था। उड़ना तो दूर, उसमें कंपन भी नहीं हुआ। व्याकुल वायु बहुत देर तक बल प्रयोग करती रही, पर सब व्यर्थ। अंत में सिर नीचा करके वह भी चुपके से उसके पीछे हो लिया

जैसे चुपचाप आया और देव-सभा के एक कोने में छिप गया।

देवराज इंद्र ने वायु का उदास चेहरा देखा और सब कुछ ले गए। वैश्विक सभा मूर्तियों की तरह निश्चल बैठी रही। कुछ देर चुप रहने के बाद देवराज ने पूछा- 'भैया वायु! वहां के हालात के बारे में कुछ बताएं। इस तरह शर्माने की जरूरत नहीं है। मुझे पता है कि आपने अपनी पूरी कोशिश की होगी।"

वायु ने विनम्र स्वर में कहा-'देवराज! कौन नहीं है वह अद्भुत तेजस्वी यक्ष पुरुष? मैं इसके बारे में कुछ नहीं जान सका।' वायु को निराश सुन देवताओं के होश उड़ गए। काटने पर खून नहीं आता। वायु और अग्नि  की शक्ति, जिस पर उन्हें गर्व था, जब उनकी यह दशा हुई, तो न जाने कौन-सी नई विपदा उन पर आने वाली है। सब बड़ी सोच में पड़ गए।

देवताओं के गुरु बृहस्पति सबसे बुद्धिमान और भविष्यवक्ता थे। उन्हें अग्नि  और वायु की गर्व भरी बातें बिल्कुल पसंद नहीं थीं।  उन्होंने एक बार सबकी ओर दृष्टि घुमाकर अपने ऊँचे आसन से इन्द्र से कहा- 'देवराज! वह तेजोमय रूप आप के अलावा किसी को पता नहीं चलेगा। कृपया आप स्वयं  जाएं और उसके बारे में पता करें और सभी को निश्चिंत करें।' इन्द्र को विवश होकर स्वयं उस तेजस्वी पुरुष के पास जाना पड़ा। यहाँ लोगों ने बहुत दिनों के बाद अपना मन लगाया और इस नई विपदा में पड़कर भग का ध्यान करने लगे।

किसी प्रकार देवराज इन्द्र उस तेजस्वी यक्ष पुरुष के पास पहुँचे।  उन्होंने देखा कि प्रकाश कहीं गायब नहीं हो गया था, पूरे आकाश और पृथ्वी को एक ही बार में चकाचौंध कर रहा था; लेकिन उनके प्रांतों में लाल, पीले, हरे रंग का प्रतिबिंब भी दिखाई दे रहा था। कुछ देर खड़े रहने के बाद जब उसकी घास ठीक हुई तो वहां ऐसी कोई चीज मौजूद नहीं मिली। बेचारा देवराज चकित रह गया।

चाहे जो भी हो। जिसने इतने दिनों तक देवों पर शासन किया, सबसे बुद्धिमान और शक्तिशाली असुरों को हराया, वह इतनी जल्दी हिम्मत कैसे हार सकता था। वह समझ गया कि यह ईश्वर के सिवा किसी और की करतूत नहीं है। वहीं समाधि में बैठकर देवराज ध्यान करने लगे। काफी देर तक ध्यान करने के बाद, उन्होंने फिर से उसी प्रकाश की किरण को आकाश से उतरते देखा। परन्तु इस बार वह तेजपुंज पुरुष रूप में नहीं था। इन्द्र ने अपनी एक हजार आँखों से गौर से देखा तो पता चला कि उसके पूरे शरीर पर सोने के आभूषणों की शोभा विराजमान है। शरीर का कांति भी सोने के समान चमकीला है। उन्हें हेमवती (हिमवन की पुत्री) पार्वती का ध्यान आया और वास्तव में वह वही थीं। पास आकर वह गम्भीर मुद्रा में इन्द्र की ओर देखने लगी। देवराज इन्द्र भी डर के मारे समाधि से उठे और आदर सहित प्रणाम कर प्रणाम किया।

कुछ देर खड़े रहने के बाद इन्द्र ने विनम्र स्वर में पूछा- 'आप तो सारे जगत की जननी हैं। वे भगवान शंकर के मुख्य रूप हैं। इस चरचर संसार में आपके लिए कुछ भी अज्ञात नहीं है। अभी कुछ ही देर हुई थी, एक परम तेजोमय यक्ष  पुरुष यहीं पर दिखायी पड़ा। मैंने इसका रहस्य जानने के लिए अग्नि और  वायु को भेजा, लेकिन वे  निराश होकर लौटे । कोई नहीं जान सका कि वह तेजस्वी पुरुष कौन था। अंत में मजबूर होकर मुझे खुद आना  पड़ा। मेरे पास आते-आते सागर न जाने कहाँ विलीन हो गया। हे देवी! आप उस तेजस्वी पुरुष को तो जानते ही होंगे। कृपया इसका भेद बताकर मेरे मन के आश्चर्य को दूर करें।'

जगदंबा को अपने पुत्र पर दया क्यों नहीं आती? अपने मुख के स्रामृत से इन्द्र के मुरझाए हुए मुख को सींचते हुए वह बोली- 'वत्स!

वह स्वयं कोई साधारण व्यक्ति नहीं था।  सारे संसार में ऐसा कोई नहीं है जो इसका भेद जान सके। वह सबकी सहायता करता है और सबका विनाश भी करता है। वह अच्छे कर्म करने वालों का मित्र है और बुरे कर्म करने वालों का वह शत्रु है। उन्होंने आपकी ओर से राक्षसों का नाश किया। तुम सब तो बस एक दिखावटी बहाना थे। उसकी मर्जी के बिना कोई चींटी के पैर को भी नहीं झुका सकता। अग्नि और वायु उस तिनके को भी हिला या जला सके , लेकिन जब वह नहीं चाहता था, तो वह क्या कर सकता था। उसी ब्रह्मा के प्रताप से तुम्हारे शत्रु असुर नष्ट हो गये, क्योंकि वे सदा पाप कर्मों में लगे रहते थे। परन्तु तुम लोग समझ गए हो कि हम सबने राक्षसों का नाश किया है। और इस बात को समझ कर आप सभी को अपने ऊपर थोड़ा नाज है। उस अभिमान को छोड़ दो, वही सब पापों का मूल है। परमेश्वर पाप से बहुत घृणा करता है। वह किसी पापी से नहीं माँगता, बल्कि उसके पुण्यों से करता है। अवगुणों को छोड़कर पापी से पापी भी उनका भक्त बन जाता है। संक्षेप में यह समझ लें कि इस दुनिया में वही सबसे दयालु और सबसे शक्तिशाली है। तुम सब अपना अभिमान त्यागकर पहले की तरह फिर से उसके प्रिय हो जाओ।

भवगति पार्वती के इन सरल शब्दों ने देवराज इंद्र को प्रभावित किया। अनूठी छाप छोड़ी। उनके लिए इस उपदेश के रूप में गर्व की काली भावना में अमृत ​​में मिल गया और चमक गया। आंखों और हृदय से कृतज्ञता के आंसू निकल पड़े। सारी जलन बाहर आ गई। माँ के चरणों में गिरकर, वह उदार हाथों का कोमल और सुखदायक स्पर्श महसूस किया। आख़िरकार, अनन्त सुख का पावन वरदान पाकर देवराज इन्द्र अपनी सभा में गये। धीर वापस मोटे धीर जगदंबा पार्वती भी आशीर्वाद देकर वहीं अंतर्ध्यान हो गईं।  

इधर देवसभा लंबी-लंबी आँखों से इन्द्र के मार्ग की प्रतीक्षा कर रही थी। इंद्र के पहुंचते ही सभी देवता उठकर बड़े हो गए। उस समय उन्होंने  देखा आनंदमय आंतरिक शांति के कारण इंद्र की महिमा कई गुना बढ़ गई थी। ब्रह्मा के शुद्ध प्रकाश में संसार के सभी तत्व उसके लिए स्पष्ट हो रहे थे। उसके हृदय के कोने में कोई गांठ नहीं बची थी और ईर्ष्या की कोई सिहरन भी नहीं थी। उसने इशारे से सभी देवताओं को अपनी-अपनी मेज पर बैठने का आदेश दिया, और जाकर अपने रत्न-जड़ित सिंहासन पर बैठ गया, और वहाँ सबसे पहले सभी देवताओं के बीच में ब्रह्मा को उपदेश दिया। इन्द्र के उपदेश के भ्रम में अग्नि और वायु जैसे गर्वीले देवताओं का कलुषित और मुमुर्शु श्रतमा भी हरा हो गया और ब्रह्मरस के अद्भुत संचार से उनकी पूर्व शक्ति पुनः प्राप्त हो गई। सभी देवताओं की अशुद्ध भावना हमेशा के लिए दब गई। सभी को नए सिरे से जन्म लेने जैसे सुखद जीवन का अनुभव होने लगा।

अब वह वास्तव में विजयी देवता बन चुका था, क्योंकि उसके भीतर का शत्रु, अभिमान का असुर, जो लाखों असुरों से भी अधिक भयानक था, हमेशा के लिए मर गया था।

केन उपनिषद पर आधारित।

अश्विनी कुमार और उनके गुरु दध्यङ्ग



अश्विनी कुमार को देवताओं का वैद्य कहा जाता है। ये दो भाई हैं, नासत्य और दस्र। इन दोनों को भगवान भास्कर यानी सूर्य का पुत्र कहा जाता है। पुराणों में इनकी उत्पत्ति की कथा भी बड़ी विचित्र कही गई है। कहा जाता है कि घोड़ी का रूप धारण करने वाली भास्कर (सूर्य) की पत्नी अश्विनी अर्थात घोड़ी का रूप धारण करने वाली पत्नी संज्ञा से इन दोनों भाइयों का जन्म हुआ था। एक तरह से यमराज और यमुना भी उनके बड़े भाई और बड़ी बहन हैं। शायद यमराज यानी मृत्यु के भाई के कारण ही उन्हें देवताओं का महान वैद्य कहा गया। ये दोनों भाई देखने में सब देवताओं से अधिक सुन्दर और अधिक स्वस्थ थे। वे  हमेशा अपने श्रृंगार में लगे रहते थे  और अपने ज्ञान और योग्यता के घमंड में दूसरे देवताओं का अपमान करते थे । इतना ही नहीं, एक बार इन दोनों भाइयों ने अपने ज्ञान के नशे में देवताओं के राजा इंद्र का अपमान भी किया था और उन्हें खूब फटकार भी लगाई थी। कहा जाता है कि इसी कारण इन्द्र ने यज्ञों के भाग से इनका पूर्ण बहिष्कार कर दिया था और आज तक इसी कारण इनका प्रवाह यज्ञ-यगदि में कम या बिल्कुल भी नहीं है। इस कारण इन्द्र से उसकी शत्रुता बहुत बढ़ गई थी।

अश्विनीकुमारों के गुरु दध्यंग अथर्वरण ऋषि थे, जिनके गुरुदेव स्वयं अथर्व ऋषि थे। दध्यंग ऋषि वेद मन्त्रों की रचना करने वाले ऋषियों में से एक थे। वे बड़े ब्रह्मज्ञानी और महात्मा थे। यद्यपि वे अपने शिष्य मंडली के दोनों अश्विनी-कुमारों की बुद्धिमत्ता और प्रतिभा से बहुत प्रसन्न थे, फिर भी उन्हें सभी ज्ञान सिखाने के बाद भी, उन्होंने उन्हें ब्रह्मविद्या का उपदेश नहीं दिया, क्योंकि वे जानते थे कि ये दोनों अश्विनी-कुमार हमेशा श्रृंगार में लगे हुए छात्र हैं, और ऐसे छात्र को ब्रह्मविद्या का उपदेश देना कुत्ते को गंगा स्नान कराने जैसा है।

अश्विनी कुमार इतने निपुण हो चुके थे कि विद्यार्थी जीवन में ही उनका नाम सर्वत्र फैल गया था। अपने इस अहंकार में डूबकर वह ब्रह्मविद्या सीखने का अधिक प्रयास भी नहीं कर सके । इंद्र का अपमान करने के कारण जब सभी देवता उनसे नाराज हो गए और उन्हें यज्ञ में शामिल नहीं करने पर सहमत हुए, तब अश्विनी कुमारों की आंखें खुल गईं। उन्होंने इसके लिए काफी प्रयास और पैरवी की, लेकिन सफलता नहीं मिल सकी। इसका एक कारण यह भी बताया जाता है कि वे ब्रह्मविद्या के ज्ञाता नहीं हैं और शारीरिक शिक्षा के अधिकारी को यज्ञ में सम्मिलित करना यज्ञ का अपमान करना है। इस प्रकार प्रयत्न और पैरवी करने के बाद भी जब ये लोग पूरी तरह से निराश हो गये, तब ये अपनी भूल से दु:खी होकर अपने पूज्य गुरु दध्यंग ऋषि के पास पहुँचे।

गुरु ने अपने प्रिय शिष्यों का बहुत सम्मान किया और कुशल पूछताछ के बाद उनके आने का कारण पूछा। यज्ञ में शामिल नहीं करने के  अपमान से दोनों भाई बहुत दुखी हुए। गुरु से बात करते-करते उनकी आंखों से श्रम के आंसू बहने लगे, उनका गला रुंध गया और चेहरा लाल हो गया। कुछ देर चुप रहने के बाद बड़े भाई नासत्य ने काँपते स्वर में कहा- 'गुरुदेव! अहंकारी देवराज मन ही मन हमसे बहुत ईर्ष्या करता है और खुली आँखों से भी हमें देखना पसंद नहीं करता। बहुत समय पहले की बात है कि हमारी उनसे बातचीत हुई थी, वह उसी बात का बदला लेना चाहते हैं और हमें यज्ञ-यागादि से बहिष्कृत करवा दिया है। इस अपमानजनक स्थिति में हमारे देवलोक में रहना भी मुश्किल हो गया है। हम चाहते हैं कि वह इस अपमान का बदला लें। 

दध्यंग ऋषि लोक व्यवसाय से दूर रहने वाले प्राणी थे। शिष्यों के उत्साह भरे शब्द उनके कानों में विलीन हो गए। उनके चेहरे पर न तो कोई विकार था और न ही उनकी वाणी में शिष्यों के प्रति कोई सहानुभूति थी। उन्होंने अपने स्वाभाविक गंभीर स्वर में कहा- 'वत्स! इंद्र देवलोक के राजा हैं। उसके प्रति दुर्भावना रखना तुम्हारा जघन्य अपराध है। किसी से ईर्ष्या करना तुम्हें शोभा नहीं देता। संसार से न्यारे देवताओं को यज्ञ में हिस्सा मिलता है। 

आपको ब्रह्म विद्या  का भी पूरा ज्ञान होना चाहिए। आप दोनों में ये विशेषताएँ नहीं हैं। ऐसे में अगर आप लोगों को यज्ञ में नहीं बुलाया जा रहा है। यज्ञ में भाग लेने के लिए सबसे पहले काम, क्रोध, लोभ, ईर्ष्या, विधर्म और द्वेष जैसी मानसिक बुराइयों से छुटकारा पाने का प्रयास करना चाहिए। तुम्हारे हृदय शुद्ध नहीं हैं। आप लोग लोक-व्यवसाय में इतना स्नेह और लगाव रखकर यज्ञ में हिस्सा नहीं पा सकते। मुझे इस काम में देवराज की शिकायत सुनना अच्छा नहीं लगता।'

दोनों भाइयों की उम्मीदों का पहाड़ टूट पड़ा। उनका सच्चा हितैषी कोई और नहीं बल्कि गुरु थे। एक दिन की शिक्षा और अभ्यास जीवन भर अपनाई हुई बुराइयों को दूर नहीं कर सका। उनके हृदय में एक तूफान उठा और उन्हें अपनी वाणी से बाहर आने को विवश करने लगे। छोटे भाई दसरा ने हाथ जोड़कर कहा- 'पूज्य गुरुदेव! इंद्र को इस घोर अपमान का प्रतिफल दिये बिना हमारे हृदय की जलन शांत नहीं हो सकती। यज्ञ में हमें हिस्सा मिले या न मिले, लेकिन इंद्र से बदला लेना बहुत जरूरी काम है। आप हमें कोई ऐसी औषधि या ज्ञान बताएं, जिससे हम इंद्र का सम्मान कर सकें। तभी हम अपनी बुराइयों को छोड़ सकते हैं।'

दस्यंग ने मुस्कुराते हुए अपना दाहिना हाथ ऊपर उठाकर कहा-'आयुष्मान! तुम्हारे गुरुदेव के पास ऐसा ज्ञान या औषधि नहीं है, जो देवराज के सम्मान या वैर के निर्यात के काम आ सके। तृप्ति, आत्म-संयम और इच्छाओं के दमन से बुराइयों को दूर किया जा सकता है। बदला लेने के बाद, आप फिर कभी शांत नहीं होते। कर सकना। देवराज अमरों के स्वामी हैं, उनकी शक्ति-शक्ति अजेय और असीम है। बदला चुकाने के बाद क्या वह चुप रहेगा? और उस स्थिति में आपकी शांति हमेशा के लिए चली जाएगी और नई बुराइयां पैदा होने लगेंगी। जीवन नर्क बन जाएगा। जाऊँगा। इसलिए मेरा सुझाव है कि आप लोग जाओ और अपने मन और इंद्रियों को नियंत्रित करने का अभ्यास करो। संसार में किसी से ईर्ष्या और द्वेष मत रखो, संतोषी बनो और अपने हिंसक स्वभाव को सदा के लिए त्याग दो।'

 मैं तुम्हें इस अभ्यास के लिए बारह वर्ष की अवधि दे रहा हूं। धीरे-धीरे इन्द्रियों को वश में करके तुम उस अवस्था में पहुँच जाओगे जिसमें ब्रह्मविद्या की प्राप्ति संभव है।

उन्होंने  बीच में ही कहा- 'गुरुदेव! कृपया वह दूसरा उपाय बताएं।' 

दस्यंग ने कहा-'वत्स दसरा! दूसरा उपाय थोड़ा कठिन है, लेकिन आप एक समर्पित अभ्यासी हैं, आप उसे भी प्राप्त कर सकते हैं। सुनो, महात्मा च्यवन नाम के एक ऋषि हैं। उसकी पत्नी सुकन्या एक बड़े राजा की पुत्री है। उन महात्मा च्यवन ने अपनी घोर तपस्या से त्रैलोक्य को विचलित कर दिया है। सूरज इन्द्र उसका नाम सुनकर काँप उठता है। च्यवन की आंखें फूट पड़ी हैं, उनका सांसारिक जीवन दयनीय हो गया है। इस चिंता में उनका शरीर शिथिल हो गया है। यदि आप लोग उनकी आँखों को अच्छा बना सकते हैं और उन्हें शरीर से स्वस्थ बना सकते हैं, तो मुझे विश्वास है कि वे आपके लिए यज्ञ में भाग लेने की व्यवस्था कर सकेंगे। उसकी तपस्या से दुनिया का कोई भी अच्छा काम हो सकता है, उसके लिए यह बहुत मामूली बात है.'

दोनों कुमार खुशी से झूम उठे । आंखें बनाना और रोगी को स्वस्थ और बलवान बनाना उनके बाएं हाथ का काम था। नासत्य का रुदन देखकर बड़े भाई ने कहा- 'तात! यह उपाय मुझे सरल लगता है। बहुत जल्द हम महात्मा च्यवन को ठीक करके अपनी मनोकामना पूरी कर सकेंगे। चलो चलते हैं, देर करने की कोई जरूरत नहीं है।'

छोटे भाई की बातें नासत्य  को भी अच्छी लगीं। हाथ जोड़कर दध्यंग से जाने की अनुमति माँगते हुए बोले- 'गुरुदेव! अब उन महात्मा च्यवन का आश्रम बताओ। आपने जो उपाय बताए हैं हम उन दोनों उपायों को पूरा करने का प्रयास करेंगे।

दद्धयंग ने कहा-'आयुष्मान! आजकल बदरीवन में गंगाद्वार के पास महात्मा च्यवन का आश्रम है। क्या आप अब तक उनके आश्रम को जानते भी नहीं थे?  तुम्हारी मनोकामना पूरी होगी। लेकिन वत्स याद रखें कि इन दोनों में से किसी भी उपाय में प्रतिहिंसा या बदले की भावना से नहीं, बल्कि अपने हक को पाने के लिए जज्बे से प्रयास करें, तभी सच्ची सफलता मिलेगी। जब तक मन में ईर्ष्या और द्वेष का कोटा बना रहता है, तब तक सफलता के बाद भी सच्ची शांति नहीं मिलती और शांति के बिना सच्चा सुख नहीं मिलता।

दोनों अश्विनीकुमारों ने अपने गुरु दाव्यांग के चरणों में सिर रखकर बदरीवन के लिए प्रस्थान किया। उस समय उनके हृदय में आनन्द की तरंगें बह रही थीं। कहा जाता है कि देवताओं के स्वामी इंद्र के हजार नेत्र हैं। इसका अर्थ है कि वह बहुत चतुर था, सदाचारी था और दुनिया भर में होने वाली घटनाओं से हमेशा अवगत रहता था। दोनों अश्विनी कुमारों के मन में जो मैल भरा था, उसका उन्हें पहले से ही पता था। इधर, उसी क्षण उन्हें दोनों भाइयों के बीच ऋषि दध्यंग के साथ हुई बातचीत के बारे में पता चला। ब्रह्मऋषि दध्यंग के ब्रह्मज्ञान और त्याग और च्यवन की तपस्या और ब्रह्मतेज की कथा भी उन्हें बहुत पहले से उनके हृदय में कचोट रही थी। वह दोनों अश्विनी कुमारों के रूखे स्वभाव के बारे में जानता था, इसलिए जैसे ही सब कुछ पता चला, वह तुरंत उन्हें विफल करने के लिए तैयार हो गया।

 प्रातःकाल ही वह अपने पुष्पक विमान में सवार हो गया और अपने आश्रम में पहुँच गया। उस समय महर्षि दध्यंग अपने शिष्यों को शिक्षा दे रहे थे। आश्रम में देवराज के मिलने की बात सुनकर चारों तरफ खलबली मच गई। जो जहां थे वहीं से भागे, चारों ओर से घिरे खड़े रहे। जब महर्षि दध्यंग को देवराज इन्द्र के अपने आश्रम में आगमन का समाचार मिला तो वे अपने शिष्यों सहित उनका स्वागत करने के लिए आगे बढ़े। ब्रह्मर्षि को अपने महान अतिथि और श्रोता के रूप में देखकर देवराज ने स्वयं आगे बढ़कर प्रणाम किया। इंद्र की इस विनम्रता का वैरागी  दध्यंग  के मन पर बहुत अच्छा प्रभाव पड़ा। उसने उसे दोनों हाथों से उठाकर गले से लगा लिया और चतुराई भरे प्रश्न पूछे। सूरज के सामने नीतिमान अपने मन की बात क्यों कहता है? वह मुस्कुराते हुए बोला  - 'ब्रह्मर्षे ! बहुत दिनों से आपके दर्शन की इच्छा थी, आज  अवसर पाकर चला आया। आप जानते हैं कि हमारे सिर पर इतनी मुसीबतें हैं कि हमें सिर उठाने की फुर्सत ही नहीं मिलती। बहुत चाहकर भी कहीं नहीं जा सकते।'

दध्यंग ने मुस्कुराते हुए अपनी कुटिया की ओर चलने का संकेत करते हुए कहा- देवराज! अधिकारों की रक्षा करना कोई मामूली काम नहीं है। इतने बड़े साम्राज्य को धारण करने वाला भला कभी संतोष और सुख कैसे भोग सकता है? आपने बड़ी कृपा की है कि आपने हमारे गाँव को सनाथ बना दिया। आज हम बनवासी ऐसे महान अतिथि के स्वागत के लिए कृतज्ञ हैं।

बात करते-करते ब्रह्मर्षि अपनी कुटिया के द्वार पर पहुँचे तो शिष्यों ने सूर-राज को बिठाने के लिए आसन बिछाया और समयानुकूल उपाय करके उनका सत्कार किया। कुछ समय बाद दध्यंग की आज्ञा से इतने महान अतिथि के स्वागत के बदले में पूरे गुरुकुल को छुट्टी दे दी गई, सारे शिष्य समूह ने पढ़ाई छोड़ दी और खेलकूद और भ्रमण करने लगे।

कुछ देर विश्राम करने के बाद ब्रह्मर्षि ने इन्द्र से कहा- 'देवराज! हमारे शास्त्रों ने अतिथि पूजा की महिमा का बखान किया है। आप जैसे महान सम्राट का हमारे वनवासियों में शुभ आगमन हमारे ह्रदय में है। हम आपकी सेवा के लिए पूरी तरह तैयार हैं। मुझे बताओ, हमारे लिए क्या है?"

सुरराज पहले तो उत्तर में मौन रहे, फिर कुछ देर तक महर्षि का उग्र मुख देखकर बोले- 'ब्रह्मर्षि! मैं आपकी मनोकामना लेकर आपकी सेवा करने आया हूं, इसे पूरा कीजिए और मुझे सुखी कीजिए।'

दध्यंग ने कहा-'देवराज! हम सब आप की सेवा के लिए तैयार हैं। सुरराज इन्द्र का मनोवांछित कार्य हुआ। दध्यंग  को पूरी तरह से अपने मायाजाल में फंसाकर उन्होंने हाथ जोड़कर विनम्र स्वर में कहा- मैं आपसे ब्रह्मज्ञान की दीक्षा लेना चाहता हूं। हालांकि इस दुनिया के हमारे विचार में  बहुत से धर्मशास्त्री हैं; परन्तु आप जैसा मुक्तचित्त, उदार, विचारशील और ब्राह्मणवादी गुरु मुझे कहीं नहीं मिलेगा। राजनीति की झंझटों से छुट्टी लेकर मैं इसी उद्देश्य से आपकी की सेवा में हाजिर हुआ हूं। अब इसमें विलम्ब न करो, आज बहुत शुभ घड़ी है, आज ही मुझे उस पवित्र ज्ञान का अधिकारी बनाकर मुझे गौरवान्वित करो।'

ब्रह्मर्षि दध्यंग  पूरी तरह से फंस गए थे। लोक-व्यापार और माया-मोह में दिन-रात लगे रहने वाले कूटनीतिज्ञ, विलासी और हिंसाप्रिय सुर-सम्राट को ब्रह्मदीक्षा देना उनकी दृष्टि में महापाप था। वे इसे ब्रह्मविद्या का अपमान मानते थे; लेकिन एक बार आपने उस व्यक्ति को देवता मानकर वचन दे दिया तो आप विचलित कैसे हो सकते हैं। काफी देर तक वह इसी उठापटक में लगा रहा। संकल्प और पसंद की लहरों के थपेड़े खाकर उनका अंतःकरण चिन्ताओं के सागर में डूबने लगा। अपनी आंखों को इंद्र से दूर ले जाएं और ऊपर फैले घेरे में चारों तरफ फैले खालीपन को देखने लगें। 

देवराज अधिक देर तक चुप न रह सका। दध्यंग का बहुत देर तक मौन देखकर वह बोला - 'ब्रह्मर्षे ! आप अभी वादा करके अन्यथा नहीं कर सकते! यदि आप जैसा सर्वज्ञ महात्मा अपनी बात का बचाव करने में हिचकिचाएगा, तो मुझे लगता है, सत्य और शब्द-सभ्यता संसार से लीक हो जाएगी। मैंने अमरावती को अपने मन में दृढ़ संकल्प के साथ छोड़ दिया है कि या तो मैं आपसे ब्रह्मविद्या की दीक्षा लेकर वापस आऊंगा या मैं अपना शेष जीवन यहीं आश्रम में बिताऊंगा। तुम्हारी चुप्पी मुझे चिंतित कर रही है, कृपया इसे जल्दी स्वीकार करो और मुझे निश्चिंत करो।'

ब्रह्मर्षि दध्यंग सुरराज बड़ी कठिनाई से इन्द्र के गम्भीर वचन सुन सके। काफी सोचने के बाद उन्हें कोई जवाब नहीं मिला। कुछ देर चुप रहने के बाद उसने कहा-'सूरराज! एक महान अतिथि के रूप में, हमने आपको जो वचन दिया है, उसका पालन हम अवश्य करेंगे, अन्यथा करने का प्रश्न शरीर में कहाँ उठता है; लेकिन हम जिस चिंता में डूबे हुए हैं वह यह है कि इस ब्रह्मविद्या को प्राप्त करने के लिए आपको साधना करनी होगी। घमण्डी मन और चंचल इन्द्रियों से युक्त, आप ब्रह्मविद्या के परम रहस्य हैं .

आप अपनी गरिमा को कैसे सुरक्षित रख पाएंगे? कहाँ है तुम्हारा त्रैलोक्य व्यापारिक साम्राज्य और कहाँ है वह ब्रह्मविद्या जो संसार से वैराग्य उत्पन्न करती है! आप दोनों का सामंजस्य कैसे स्थिर रखेंगे? हम चाहते हैं कि आप इसके लिए ध्यान से सोचें, फिर बाद में हम आपको दीक्षा देंगे!'

कहाँ थी देवराज में ये काबिलियत? वह बीच में ही बोला- 'ब्राह्मणों! मेरे पास इसे फिर से सोचने के लिए प्रतीक्षा करने का समय नहीं है। जिस चीज के लिए मेरा इरादा पक्का है, उसमें बार-बार दिमाग लगाने की जरूरत नहीं दिखती। आपको इसी समय ब्रह्मविद्या का दीक्षा लेना होगा। मैं इसे लिए बिना यहां से नहीं लौटूंगा।'

दध्यंग ने जब देखा कि अब उससे पीछा छुड़ाने की कोई युक्ति या युक्ति शेष नहीं रही, तो वह बोला- 'सूरराज! यह एक अच्छी चीज़ है। आज तुम आश्रम में निवास करो। कल सुबह आपको उस ब्रह्मविद्या में दीक्षा दी जाएगी। परन्तु उसके लिये यह आवश्यक है कि तुम इन निकम्मे वस्त्रों और गहनों को उतारकर सारथी आदि परिचारकों सहित रथ को लौटा दो और विद्यार्थियों की तरह कौपीन और मेखला धारण करो। दीक्षा लेने के लिए हाथ में पवित्र तन, मन और वचन के साथ समिधा लेकर हमारे पास आएं।'

कोई अन्य विकल्प न देखकर दूसरे दिन प्रात:काल जब इन्द्र अत्यन्त असहाय होकर अपने परम प्रिय वस्त्र-आभूषणों को त्यागकर वट्टु के रूप में ब्रह्मविद्या की दीक्षा लेने के लिए दध्यंग के पास में आए, तो आश्रमवासी बड़े उत्सुक हुए। इस बारे में। लेकिन दध्यंग स्वयं इंद्र की इस विनम्रता से प्रसन्न नहीं थे और न ही इंद्र को उनकी महान दया पर कोई खुशी महसूस हुई, क्योंकि वे दोनों अनिच्छा से जबरन तय किए गए रास्ते पर चल रहे थे। एक को अपना वादा पूरा करना था और दूसरे को अपना स्वार्थ पूरा करना था।

अंत में दध्यंग को अपना वादा पूरा करना पड़ा। ढोंगी मन इन्द्र ने ब्रह्मविद्या की दीक्षा तो ले ली, पर अंत तक उसे कोई मानसिक संतुष्टि या शांति नहीं मिली। एक दिन दध्यंग ने उपदेश देते हुए भोग की निंदा की। ऐसा करते हुए उन्होंने इन्द्र की तुलना एक लंपट कुत्ते से की और बताया कि जो लोग इस संसार में जन्म लेकर अपने स्वार्थ साधने में लगे रहते हैं और जिनके जीवन में भोग-विलास के अतिरिक्त और कोई उद्देश्य नहीं होता, उनका जीवन दुख, अशांति और अशांति से भरा होता है। असंतोष। वहाँ कुछ नहीं है।

ऐसी ब्रह्मविद्या को जानकर इन्द्र क्या करेगा, जिसमें उसके ऐश्वर्य और भोग को कुत्ते का जीवन बताया जाएगा? जिस ऐश्वर्य, सुख-भोग आदि के लिए बड़े-बड़े मुनि तपस्या करते हुए अपना जीवन व्यतीत करते हैं और फिर भी नहीं पाते, वह कुत्ते का जीवन कैसे हो सकता है? उनके मन में शंका हुई कि ब्रह्मऋषि अपने इष्ट शिष्य अश्वनी कुमार की प्रेरणा से मेरा अपमान कर रहे हैं। उसका मन पक्षपात के कारण अशुद्ध हो गया है। त्रैलोक्य में कहीं भी मेरा इतना अपमान कभी नहीं हुआ। मन में इस शंका के अंकुर ने थोड़ी ही देर में शत्रुता के वृक्ष का रूप धारण कर लिया। उसकी आंखें लाल हो गईं, नाक से गर्म आहें निकलने लगीं और चेहरे पर लाली फैल गई। बड़ी कठिनाई से भी वह अपने को रोक न सका, भूमि से उठ खड़ा हुआ और बोला- 'महर्षे! इसे रोको, इससे ज्यादा मुझे अपमानित मत करो, नहीं तो तुम्हारा भला नहीं होगा! त्रैलोक्य के किसी भी जीव में मेरे सामने इस प्रकार बात करने की शक्ति या साहस नहीं है। एक शिक्षक होने के नाते मैंने श्राप के सभी आदेशों का आँख बंद करके पालन किया। लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि मेरा स्वाभिमान मर गया है और मैं इतना हीन हो गया हूं कि आप जो कुछ भी कहते हैं, मैं चुपचाप सुनता रहता हूं।'

दध्यंग को संसार में किसी का भय नहीं था। अपने स्वाभाविक स्वर में कहा-'देवराज! आप दुनिया में हमारे सामने आने वाले पहले व्यक्ति हैं, जो ब्रह्म का ज्ञान प्राप्त करने के बाद भी इतने असंतुष्ट और बेचैन हैं। हमने किसी राग-द्वेष के वश में सुखों की निंदा नहीं की है। आप जो चाहें कर सकते हैं, हमें कोई डर नहीं है

 महर्षि दध्यंग की इस अकर्मण्यता से इन्द्र को और भी क्रोध आया। उन्होंने अपनी वाणी को कोमल और कठोर बनाते हुए कहा- 'महर्षे! कई कारणों से मैं तुम्हें छोड़ कर जा रहा हूं, लेकिन अगर  आपने फिर कभी किसी को इस ब्रह्मविद्या का उपदेश दिया , तो मैं उसी क्षण अपने वज्र से आपका सिर फोड़ दूंगा।' इंद्र के इस दुर्व्यवहार का दया के मन पर कोई प्रभाव नहीं पड़ा। वह पहले की तरह शांत रहे। क्रोध या झुंझलाहट का लेशमात्र भी निशान नहीं था। मुस्कराते हुए उसने कहा- 'सूरज! बहुत अच्छी बात है, जब हम किसी को यह ब्रह्मविद्या देते हैं यदि हम उपदेश देंगे, तो हमारा सिर फट जाएगा।

महर्षि दध्यंग  की इस क्षमा और शांति से क्रोध से पागल इन्द्र का मन प्रभावित न रह सका। लेकिन क्षमा माँगना उसके स्वभाव में नहीं था। वह तुरन्त वहाँ से उठा और बिना प्रणाम आदि किये अपनी राजधानी को चला गया।

दूसरी ओर महर्षि च्यवन के आश्रम में पहुँचकर अश्विनीकुमारों ने अपनी कुशलता और बुद्धि से उनकी आँखों को ठीक किया और उन्हें एक युवक की तरह सुंदर, स्वस्थ और शक्ति से भरपूर बनाया। सुकन्या और उसके पिता इस बात से बहुत खुश हुए। च्यवन की खुशी का कोई मोल नहीं था। वह खुशी से झूम उठा। उन्होंने प्रशविणीकुमारों पर प्रसन्न होकर कहा- 'तात! हम जीवन भर शापित लोगों के इस महान अनुग्रह को नहीं भूल सकते। शापित लोगों ने हमारे जीवन को सुखमय बनाकर न केवल हमें तृप्त किया है, बल्कि सुकन्या और उसके पिता के भी अनेक संकट उससे दूर हो गए हैं। इसके बदले में तुम हमसे जो भी वरदान चाहो मांग सकते हो।'

दोनों भाई बहुत खुश थे! उनके मन की मुराद पूरी हुई। च्यवन की तपस्या के प्रभाव और महत्व की चर्चा तो वह सुन ही चुका था, कुछ देर बहुत सोचने के बाद छोटे भाई दसरा ने कहा- 'महर्षे! यदि आप वास्तव में हम पर प्रसन्न हैं तो हमें यज्ञों में भाग लेने का अधिकारी बनाइए। देवराज ने ईर्ष्यावश हमारे विरुद्ध इतना दुष्प्रचार किया कि समस्त देवताओं सहित ऋषियों ने हमें यज्ञ-भाग प्राप्त करने के अधिकार से वंचित कर दिया। इस जातिगत अपमान से हमें गहरा दुख है। बड़े भाई नस्त्य उस समय महर्षि च्यवन के मुख की ओर देख रहे थे।

उनकी  बात सुनकर च्यवन ने कहा-'आयुष्मान! आपकी मनोकामना पूरी होगी। हम शीघ्र ही एक बहुत बड़े यज्ञ में आप को यज्ञ का हक़दार हिस्सा बनाकर उस मर्यादा को सदा के लिए स्थायी कर देंगे। हमें देवराज का कोई डर नहीं है। हम उनकी शक्ति का मुकाबला करने से डरते नहीं हैं, शापित लोग निश्चिंत रहें!'

 महर्षि च्यवन ने अपनी बात पूरी की। देवराज ने उसे परेशान करने की पूरी कोशिश की, लेकिन सब बेकार गया। यहां तक ​​कि मारपीट तक की नौबत आ गई, लेकिन उसका कोई नतीजा नहीं निकला। अश्विनीकुमारों को यज्ञ में भाग मिला और इन्द्र का अहंकार मर्दाना हो गया।

यज्ञ में भाग लेने के बाद, अश्विनी कुमारों के श्रम को विराम दिया गया। अब वह अपने गुरु महर्षि दस्यंग के वचनों पर विश्वास करके जीवन की साधना में लीन होकर ब्रह्मविद्या प्राप्त करने की क्षमता की तैयारी करने लगा। इस साधना में उन्हें सफलता भी मिली। उनके स्वभाव में आए इस बदलाव की दुनिया भर में तारीफ होने लगी। देवताओं में भी उनकी ख्याति बहुत बढ़ गई। जहाँ पहले कोई सीधा सवाल नहीं करता था वहाँ उसका स्वागत होने लगा। लोक धंधों से उनका मोह भंग होने लगा और अब श्रृंगार का भाव भी समाप्त हो गया है। अपने मृदु वचन, सदाचार, सरलता, दया, शान्ति, संतोष, अहिंसा आदि गुणों से वे अत्यन्त यशस्वी हुए। उनके निर्मल मन से अशांति और असंतोष की आग हमेशा के लिए बुझ गई।

इस प्रकार वैराग्य आदि से सम्पन्न होकर दोनों भाई अपने गुरु महर्षि दध्याद के पास पहुँचे और ब्रह्मविद्या प्राप्त करने की उत्कट इच्छा प्रकट करते हुए नम्रतापूर्वक प्रार्थना करने लगे। महर्षि दध्यांग भ्रमित हो गए। अश्विनी कुमारों के व्यवहार से उन्हें ज्ञात हुआ कि वे अब ब्रह्मविद्या प्राप्त करने के सच्चे अधिकारी बन गये हैं, परन्तु कठिनाई इन्द्र के श्रम के कारण थी। एक ओर वचन देकर भी योग्य शिष्यों को ब्रह्मविद्या न पढ़ाना पाप था, और दूसरी ओर इंद्र का वचन उल्लंघन के कारण, उन्हें ब्रह्मत्या करने के लिए मजबूर करने का आरोप लगाया गया था। इसी दुविधा में रहकर वे बहुत देर तक उलझे रहे और इन्द्र से अपने विवाद का वृत्तांत शिष्यों को सुनाते हुए बोले- 'वत्स! हम जीवन से आसक्त नहीं हैं, असत्य होने से अच्छा मृत्यु की गोद में सोना है। आपके प्रति अपनी प्रतिज्ञाओं को निभाना हमारा कर्तव्य है; लेकिन इंद्र को हमें मजबूरी में मारना होगा, यह भी हमारे सिर पर पाप होगा। ऐसी विषम परिस्थिति में, आइए हम कुछ तय करें। आज आश्रम में शांति से रहो, कल सुबह हम अपना निर्धारित कर्तव्य निभाएंगे।'

जब अश्विनी कुमारों को गुरु की विवशता का पता चला तो वे बहुत दुखी हुए; लेकिन विवेक और बुद्धि ने उसका पीछा नहीं छोड़ा। कुछ देर बाद छोटा भाई बोला- 'गुरुदेव! अगर ऐसी कोई मजबूरी है तो मुझे उस ब्रह्मविद्या की कोई जरूरत नहीं है, जिसके लिए आपको शरीर छोड़ना पड़े।'

दाध्यांग ने दसरा की ओर देखकर मुस्कराते हुए कहा-'वत्स! जिसने भी इस नाशवान संसार में जन्म लिया है, वह एक न एक दिन मृत्यु की शरण में अवश्य ही जायेगा। उसे अपने कर्मों का फल भोगना ही पड़ेगा क्योंकि यह कर्मभूमि है। आत्मा को यहाँ अच्छे या बुरे कर्मों का फल भोगने के लिए ही आना पड़ता है। मृत्यु निश्चित है। उसके डर से कोई नहीं बच सकता। जो उनसे डरता है उसे आज से 100 साल के भीतर एक न एक दिन उसका सामना करना ही पड़ेगा। वह कायर और पापी है। यदि मनुष्य अपने कर्तव्यों पर अडिग रहकर मरता है तो इससे अच्छी मृत्यु उसे नहीं मिल सकती। बच्चा ! यह मृत्यु क्या है, इसे जानने के बाद कोई इससे नहीं डरता!

गुरु की इस बात पर दसरा कुछ हैरान हुआ। वह बीच में ही बोला- 'गुरुदेव! मैं मृत्यु को उस रूप में जानना चाहता हूं, जिसे जानने के बाद कोई उससे डरे नहीं।'

दध्यंग ने कहा-'वत्स! मृत्यु के साथ केवल शरीर बदलता है, आत्मा अमर, अमर और अविनाशी है। उसे कोई नहीं मार सकता। जैसे मनुष्य पुराने वस्त्रों को त्यागकर नये वस्त्र धारण करता है, वैसे ही पुराना शरीर छोड़कर आत्मा नया शरीर भी धारण करती है। जैसे अच्छे दाम या मेहनत पर सस्ते कपड़े मिलते हैं और कम दाम या मेहनत पर मामूली कपड़ा मिलता है, वैसे ही आत्मा को भी अच्छे और बुरे कर्मों के अनुसार अच्छे और बुरे शरीर मिलते हैं।'

बड़े भाई नासत्य ने हाथ जोड़कर कहा- 'गुरुदेव! लेकिन कुछ भी तुम्हारे इस शरीर द्वारा विश्व का जो कल्याण हो रहा है, उसे देखते हुए इसकी सब प्रकार से रक्षा करना ही हमारा परम धर्म है।' दासरा ने कहा- 'गुरुदेव! मुझे इन्द्र से तनिक भी भय नहीं है, मैं उसे निष्फल कर दूँगा। सुनिश्चित हो।'

नासत्य  उत्सुकता से दस्र  को देखने लगी। दस्र  ने कहा- 'गुरुदेव! बिछड़े हुए अंगों को फिर से जोड़ने और उन्हें जीवित करने की कला हम जानते हैं। इसलिए आइए एक ऐसा कौशल करें, जिसके कारण न तो आपकी मृत्यु होगी और न ही हमें ब्रह्मविद्या से वंचित होना पड़ेगा।'

दध्यंग  ने कहा - 'यह कैसे संभव होगा ?"

दस्र  ने कहा- 'गुरुदेव! हम एक घोड़ा लाते हैं और पहले उसका सिर घड़े से उतारते हैं। फिर वे तुम्हारा सिर उतारकर उस पर रख देते हैं और उसका सिर तुम्हारे धड़ पर रख देते हैं। आप उसी घोड़े के सिर से हमें ब्रह्मविद्या का उपदेश देते हैं। इस पर यदि इन्द्र आकर तुम्हारे घोड़े का सिर काट दे तो हम तुम्हारा सिर घोड़े से उतारकर तुम्हें जीवित कर देंगे और घोड़े के सिर से घोड़े को भी पुनर्जीवित कर देंगे। न आपका धड़ मरेगा, न घोड़ा मरेगा और न ब्रह्महत्या का पाप इन्द्र को भोगना पड़ेगा।'

अपने छोटे भाई की बातें सुनकर नासत्य  चुपचाप खुश हो गई। दध्यांग को प्रस्ताव स्वीकार करने में कोई आपत्ति नहीं थी। 

इस प्रकार दध्यंग ने घोड़े के सिर से ब्रह्मविद्या का संपूर्ण उपदेश देकर प्रश्विनीकुमारों को पूर्ण ब्रह्मज्ञानी बना दिया। अब उन्हें यज्ञ से निकालने की बात कोई नहीं उठा सकता था। इधर, जब इंद्र को दध्यंग के माध्यम से अश्विनी कुमारों को ब्रह्मविद्या प्राप्त करने का समाचार मिला, तो वे क्रोधित हो गए।

अपनी राजधानी से निकल कर सीधे आश्रम पहुंचे  बिना कुछ पूछे उसने क्रूरता से घोड़े का सिर काट दिया । लेकिन अश्विनी कुमारों ने अपनी संजीवनी विद्या से घोड़े के धड़  से जुड़े अपने गुरु का सिर उतारकर इंद्र के सामने उसे वापस जीवित कर दिया और घोड़े के सिर को उ वापस जीवंत कर  दिया ।

देवराज इन्द्र ने विस्मित नेत्रों से देखा कि महर्षि दध्यंग प्रसन्न मुख से उनकी ओर देख रहे हैं और घोड़ा हिनहिना रहा है और अपने पैरों से भूमि को कुरेद रहा है। वह बहुत लज्जित हुआ और चुपचाप सिर झुकाए अपनी राजधानी को लौट गया। दोनों अश्विनी कुमारों की लंबे समय से पोषित इच्छा पूरी हुई और महर्षि दध्यंग भी इससे बहुत संतुष्ट हुए। दो-चार दिन गुरु के आश्रम में रहने के बाद जब प्रश्विनी कुमार अंतिम दीक्षा लेकर अपने घर लौटने की अनुमति मांगने लगे, तो दध्यंग ने प्रसन्न मन से उन्हें विदा किया- 'कुमार! आगे बढ़ो, तुम्हारे रास्ते में शुभकामनाएँ। सदा सत्य बोलो, धर्म का आचरण करो, स्वाध्याय से कभी विचलित न हो। जो कर्म निंदा से मुक्त हों, उन्हीं कर्मों को करें, भूलकर भी कभी भी निंदित कर्म न करें। बेटा ! छल, कपट, मत्सर, द्वेष से सदा दूर रहो - ये जलने वाली वस्तुएँ हैं। सदा परोपकार में प्रीति रखने वाला ऐसा दूसरा कोई धर्म नहीं है। यहाँ तक कि अपने शत्रुओं के साथ भी मित्र की भावना रखना, यही इस ज्ञान को प्राप्त करने की सफलता है। धोखे में भी उन्हें कभी मत भूलना।

नासत्य और दस्त्र ने महर्षि दध्यांग के इस उपदेश को शांत मन से पीकर अंतिम बार उनके चरणों में सिर झुकाया और अपने धर्मोपदेश के मार्ग पर आगे बढ़ गए। उस समय उनके निर्मल मन में संतोष और शांति की छाया छाई हुई थी। उसके स्वभावप्रिय सुमन से वैर का काँटा निकल चुका था। अब उनकी बाहरी दृष्टि में चारों ओर की हरी-भरी सृष्टि आनंद के सागर में डूब रही थी और उनकी अन्तर दृष्टि में हृदय के किसी अज्ञात कोने में भी कहीं अंधकार की धुँधली रेखा नहीं दिखाई दे रही थी।


* तेत्तिरीय ब्राह्मण, वृहदारण्य और पुराणों से उद्धृत