कठोपनिषद

18th Mantra of Kathopanishada

(अठारहवां मन्त्र)

त्रिणाचिकेतस्त्रयमेतद्विदित्वा य एवं विद्वांश्चिनुते नाचिकेतम्।
स मृत्यृपाशानृ पुरत: प्रणोद्य शोकातिगो मोदते स्वर्गलोके ॥१८॥

इन तीनों (ईंटों के स्वरुप संख्या और चयन-विधि) को जानकर तीन बार नाचिकेत अग्नि का अनुष्ठान करनेवाला जो भी विद्वान पुरुष नाचिकेत अग्नि का चयन करता है, वह (अपने जीवनकाल मे ही) मृत्यु के पाशों को अपने सामने ही काटकर, शोक को पार कर, स्वर्गलोक में आनन्द का अनुभव करता है।

“That one who knows the three-fold aspects of Nachiketa Agni  and abides by these three things and properly performs the worship of Nachiketa Agni (Fire sacrifice), with three-fold knowledge, throws of the chain of birth and death, goes beyond sorrows and rejoice in heaven.” 

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