कठोपनिषद्


द्वितीय अध्याय 
प्रथम वल्ली
(पाँचवाँ मन्त्र)

य इमं मध्वदं वेद आत्मानं जीवमन्तिकात्।
ईशान भूतभव्यस्य  न ततो विजुगुप्सते।। एतद् वै तत्।। ५।।
जो कर्मफलभोक्ता (मनुष्य) जीवन के स्त्रोत परमात्मा को समीप से (भली प्रकार) भूत, भविष्यत् (और वर्तमान) के शासक के रूप में जान लेता है, फिर वह ऐसा जानने के पश्चात् भय, घृणा नहीं करता। निश्चय ही (यही तो) वह आत्मतत्त्व है (जिसे तुम जानना चाहते हो)।

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