कठोपनिषद्


द्वितीय अध्याय 
प्रथम वल्ली
(चतुर्थ मन्त्र)


स्वप्नान्तं जागरितान्तं चोभौ येनानुपश्यति।
महान्तं विभुमात्मानं मत्वा धीरो न शोचति।। ४।।

स्वप्न के मध्य में, जाग्रत-अवस्था में, इन दोनों अवस्थाओं में जिसके प्रताप से (मनुष्य दृश्यों को) देखता है, (उस) महान् सर्वव्यापी आत्मा (परमात्मा) को जानकर धीर (बुद्धिमान्) पुरुष शोक (चिन्ता आदि) नहीं करता।

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