कठोपनिषद्


प्रथम अध्याय
तृतीय वल्ली


(तृतीय मन्त्र)


आत्मानं रथिनं विद्धि शरीरं रथमेव तु।
बुद्धिं तु सारथिं विद्धि मनः प्रग्रहमेव च ॥३॥

जीवात्मा को रथ का स्वामी समझो और शरीर को ही रथ (समझो) और बुद्धि को सारथि (रथ चलानेवाला) समझो और मन को ही लगाम समझो।

(चतुर्थ मन्त्र)


इन्द्रियाणि हयानाहुर्विषयांस्तेषु गोचरान्।
आत्मेन्द्रियमनोयक्तं भोक्तेत्याहुर्मनीषिणः ॥४॥

मनीषीजन इन्द्रियों को घोड़े कहते हैं विषयों (भोग के पदार्थों) को उनके गोचर (विचरने का मार्ग) कहते हैं शरीर, इन्द्रिय और मन से युक्त (जीवात्मा) को भोक्ता है, ऐसा कहते हैं।

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