प्रथम अध्याय
तृतीय वल्ली
(सातवाँ मन्त्र)
यस्तवविज्ञानवान् भवत्यमनस्कः सदाऽशुचिः।
न स तत्पदमाप्नोति संसारं चाधिगच्छति ॥७॥
(जो भी सदा विवेकहीन, असंयतमन, अपवित्र होता है वह उस परमपद को प्राप्त नहीं करता तथा संसारचक्र को ही प्राप्त होता है।)
(आठवाँ मन्त्र)
यस्तु विज्ञानवान् भवति समनस्कः सदासशुचिः।
स तु तत्पदमाप्नोति यस्माद् भूयो न जायते ॥८॥
(और जो विवेकशील संयतमन, पवित्र होता है वह तो उस परमपद को प्राप्त कर लेता है जहाँ से (वह) पुनः (लौटकर) उत्पन्न नहीं होता।)
(नवाँ मन्त्र)
विज्ञानसारथिर्यस्तु मनःप्रग्रहवान् नरः।
सोऽध्वनः पारमाप्नोति तद्विष्णोः परमं पदम् ॥९॥
(जो मनुष्य विवेकशील बुद्धिरूप सारथि से युक्त और मनरूप प्रग्रह (लगाम) को वश में रखनेवाला है वह (संसार) मार्ग पार करके विष्णु के उस (प्रसिद्ध) परम पद को प्राप्त कर लेता है।)
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें