कठोपनिषद्


द्वितीय अध्याय 
प्रथम वल्ली
(दसवाँ  मन्त्र)


यदेवेह तदमुत्र यदमुत्र तदन्विह।
मृत्योः स मृत्युमाप्रोति य इह नानेव पश्यति।। १०।। 

जो (परब्रह्म परमात्मा) यहाँ (इस लोक में) है, वही वहाँ (उस लोक में) है। जो वहाँ (परलोक में) है, वही यहाँ (इस लोक में) है। जो यहाँ (परमात्मा को) अनेक की भाँति देखता है, वह मृत्यु से मृत्यु को प्राप्त करता है।

(ग्यारहवाँ मन्त्र)


मनसैवेदमाप्तव्यं नेह नानास्ति किंचन।
मृत्यो: स मृत्युं गच्छति य इह नानेव पश्यति।। ११।।

विशुद्ध एवं सूक्ष्म) मन से ही यह (परमात्म तत्त्व) प्राप्त करने योग्य है यहाँ (जगत् में) अनेक कुछ भी नहीं है। जो मनुष्य यहाँ (इस जगत् में) (परमात्मा को) अनेक की भाँति देखता है, वह मृत्यु से मृत्यु को प्राप्त होता है।





 



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