प्रथम अध्याय
तृतीय वल्ली
(द्वितीय मन्त्र)
यः सेतुरीजानानामक्षरं ब्रह्म यत्परम्।
अभयं तितीर्षतां पारं नाचिकेतं शकेमहि ॥२॥
[(यमराज परमात्मा से प्रार्थना करते हैं कि हे परमात्मन् !) जो यज्ञ करने वालों के लिए सेतु हैं (उस) नाचिकेत अग्नि (तथा) जो संसार-सागर को पार करने की इच्छावालों के लिए अभयपद हैं (उस) अविनाशी परब्रह्म को हम जानने में समर्थ हों।]
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