कठोपनिषद्


द्वितीय अध्याय 
प्रथम वल्ली
(बारहवाँ  मन्त्र)


अङ्गुष्ठमात्र: पुरुषो मध्य आत्मनि तिष्ठति।
ईशानो भूतभव्यस्य न ततो विजुगुप्सते।। एतद् वै तत्।। १२ ।।    

अङ्गुष्ठमात्र (अँगूठे के मापवाला) पुरुष देह के मध्यभाग (हृदयाकाश) में स्थित रहता है। वह भूत और भविष्यत् (काल) का शासन करनेवाला है। उसके जाने लेनेके पश्चात् मनुष्य घृणा, भय, आदि नहीं करता। यह ही तो वह है।

(तेरहवाँ  मन्त्र)


अङ्गुष्ठमात्रः पुरुषो ज्योतिरिवाधूमकः।
ईशानो भूतभव्यस्य स एवाद्य स उ श्वः।। एतद् वै तत्।। १३।।

अङ्गुष्ठमात्र (अँगूठे के मापवाला) पुरुष धूम रहित ज्योति की भाँति है। भूत और भविष्यत् का (अर्थात् काल का) शासक है। वह ही आज है और वह ही कल है (सनातन है)। यही है वह।

कठोपनिषद्


द्वितीय अध्याय 
प्रथम वल्ली
(दसवाँ  मन्त्र)


यदेवेह तदमुत्र यदमुत्र तदन्विह।
मृत्योः स मृत्युमाप्रोति य इह नानेव पश्यति।। १०।। 

जो (परब्रह्म परमात्मा) यहाँ (इस लोक में) है, वही वहाँ (उस लोक में) है। जो वहाँ (परलोक में) है, वही यहाँ (इस लोक में) है। जो यहाँ (परमात्मा को) अनेक की भाँति देखता है, वह मृत्यु से मृत्यु को प्राप्त करता है।

(ग्यारहवाँ मन्त्र)


मनसैवेदमाप्तव्यं नेह नानास्ति किंचन।
मृत्यो: स मृत्युं गच्छति य इह नानेव पश्यति।। ११।।

विशुद्ध एवं सूक्ष्म) मन से ही यह (परमात्म तत्त्व) प्राप्त करने योग्य है यहाँ (जगत् में) अनेक कुछ भी नहीं है। जो मनुष्य यहाँ (इस जगत् में) (परमात्मा को) अनेक की भाँति देखता है, वह मृत्यु से मृत्यु को प्राप्त होता है।





 



कठोपनिषद्


द्वितीय अध्याय 
प्रथम वल्ली
(नवाँ मन्त्र)


यतश्चोदेति सूर्योऽस्तं यत्र च गच्छति।
तं देवा: सर्वे अर्पितास्तदु नात्येति कश्चन।। एतद् वै तत्।। ९।।

जहाँ (जिस) से सूर्य उदय होता है तथा जिसमें अस्त होता है, सब देव उसे समर्पित हैं (उसमें प्रतिष्ठित हैं)। उस परमात्मा को निश्चय ही कोई भी नहीं लाँघ सकता है। यही तो वह है।

कठोपनिषद्


द्वितीय अध्याय 
प्रथम वल्ली
(आठवाँ मन्त्र)

अरण्योर्निहितो जातवेदा गर्भ इव सुभृतो गर्भिणीभिः।
दिवे दिवे ईडयो जागृवद्भिर्हविष्मद्भिर्मनुष्येभिरग्निः।। एतद् वै तत्।।८।।

सर्वज्ञ अग्निदेव (जो) गर्भिणी स्त्रियों द्वारा उत्तम प्रकार से धारण किये हुए सुरक्षित गर्भ की भाँति दो अरणियों में निहित है (वह) सावधान रहकर (योग्य सामग्रियों से) यज्ञ करने वाले मनुष्यों द्वारा प्रतिदिन स्तुति करने के योग्य है। यही है वह। (जिसे तुमने जानना चाहा है।) 

कठोपनिषद्


द्वितीय अध्याय 
प्रथम वल्ली
(सातवाँ मंत्र)


या प्राणेन संभवत्यदितिर्देवतामयी।
गुहां प्रविश्य तिष्ठन्तीं या भूतेभिर्व्यजायत।। एतद् वै तत्।। ७।।

जो सर्वदेवतामयी अदितिदेवी (खानेवाली शक्ति) प्राणों के साथ उत्पन्न होती है, जो प्राणियों के सहित उत्पन्न हुई है, हृदयरूपी गुहा में प्रविष्ट होकर स्थित रहती है, यह ही वह है (जिसे तुम जानना चाहते हो)।

कठोपनिषद्


द्वितीय अध्याय 
प्रथम वल्ली
(छठवाँ मन्त्र) 

य: पूर्वं तपसो जातमद्भय: पूर्वमजायत।
गुहां प्रविश्य तिष्ठन्तं यो भूतेभिर्व्यपश्यत।। एतद् वै तत्।। ६।।

जो (मनुष्य) सर्वप्रथम तप से (पूर्व) प्रकट होने वाले (हिरण्यगर्भ) को, जो जल (आदि भूतों) से पूर्व पूर्व उत्पन्न हुआ, भूतों के साथ हृदयरूप गुहा में संस्थित देखता है, (वही उसे देखता है)। यह ही वह (आत्मा) है।

कठोपनिषद्


द्वितीय अध्याय 
प्रथम वल्ली
(पाँचवाँ मन्त्र)

य इमं मध्वदं वेद आत्मानं जीवमन्तिकात्।
ईशान भूतभव्यस्य  न ततो विजुगुप्सते।। एतद् वै तत्।। ५।।
जो कर्मफलभोक्ता (मनुष्य) जीवन के स्त्रोत परमात्मा को समीप से (भली प्रकार) भूत, भविष्यत् (और वर्तमान) के शासक के रूप में जान लेता है, फिर वह ऐसा जानने के पश्चात् भय, घृणा नहीं करता। निश्चय ही (यही तो) वह आत्मतत्त्व है (जिसे तुम जानना चाहते हो)।

कठोपनिषद्


द्वितीय अध्याय 
प्रथम वल्ली
(चतुर्थ मन्त्र)


स्वप्नान्तं जागरितान्तं चोभौ येनानुपश्यति।
महान्तं विभुमात्मानं मत्वा धीरो न शोचति।। ४।।

स्वप्न के मध्य में, जाग्रत-अवस्था में, इन दोनों अवस्थाओं में जिसके प्रताप से (मनुष्य दृश्यों को) देखता है, (उस) महान् सर्वव्यापी आत्मा (परमात्मा) को जानकर धीर (बुद्धिमान्) पुरुष शोक (चिन्ता आदि) नहीं करता।

कठोपनिषद्


द्वितीय अध्याय 
प्रथम वल्ली
(तृतीय मन्त्र)


येन    रुपं  रसं    गन्धं    शब्दान्स्पर्शांश्च   मैथुनान्। 
एतेनैव विजानाति किमत्र परिशिष्यते।। एतद् वै तत्।।३।। 

जिस (आत्मा) से (मनुष्य) शब्द, स्पर्श, रस, गन्ध और मैथुन (स्त्री-प्रसंग) (के सुख) को जानता है, इसी (आत्मा) से ही तो जानता है। कौन सा ऐसा पदार्थ है जो यहां (इस जगत् में) शेष रह जाता है (जिसे आत्मा नहीं जानता) ? यही तो वह है (जिसे तुम जानना चाहते हो)।

कठोपनिषद्


द्वितीय अध्याय 
प्रथम वल्ली
(द्वितीय मन्त्र) 

पराच: कामाननुयन्ति बालास्ते मृत्योर्यन्ति वितस्य पाशम्।
अथ धीरा अमृतत्वं विदित्वा ध्रुवमध्रुवेष्विह न प्रार्थयन्ते ।।२।।

(अविवेकशील जन बाह्य भोगों का अनुसरण करते हैं। वे सर्वत्र विस्तीर्ण मृत्यु के बन्धन को प्राप्त करते हैं, किन्तु धीर (विवेकशील) पुरुष ध्रुव (नित्य, शाश्वत) अमृतपद को जानकर इस जगत् में अध्रुव (अनित्य, नश्वर) भोगों में से किसी (भोग) की भी कामना नहीं करते।) 

कठोपनिषद्

द्वितीय अध्याय 
प्रथम वल्ली


(प्रथम मन्त्र)
पराञ्चि खानि व्यतृणत् स्वयंभूस्तस्मात्पराड् पश्यति  नान्तरात्मन्।
कश्चिद्धार:          प्रत्यगात्मानमैक्षदावृत्तचक्षुरमृतत्वमिच्छन् ॥१॥

स्वयं भू (स्वयं प्रकट होने वाले) परमेश्वर ने समस्त इन्द्रियों को बहिर्मुखी (बाहर विषयों की ओर जानेवाली) बनाया है। इसीलिए (मनुष्य) बाहर देखता है, अन्तरात्मा को नहीं (देखता)। अमृतत्व (अमरपद) की इच्छा करने वाला कोई एक धीर (बुद्धिमान् पुरुष) अपने चक्षु आदि इन्द्रियों को बाह्य विषयों से लौटाकर प्रत्यगात्मा (अन्त:स्थ,सम्पूर्ण विषयों को जानने वाला आत्मा) को देख पाता है।

कठोपनिषद्


प्रथम अध्याय 
तृतीय वल्ली

(सत्रहवाँ मन्त्र) 
य इमं परमं गुह्यं श्रावयेद्    ब्रह्मसंसदि।
प्रयत: श्राद्धकाले वा तदानन्त्याय क्लपते।
तदानन्त्याय क्लपते ॥१७॥

(जो (मनुष्य) शुद्ध होकर इस परमगुह्य प्रसंग को ज्ञानी जन की सभा में सुनाता है अथवा श्राद्धकाल में सुनाता है, वह अनन्त होने में समर्थ हो जाता है, वह अनन्त होने में समर्थ हो जाता है।)

कठोपनिषद्


प्रथम अध्याय 
तृतीय वल्ली

(सोलहवाँ मन्त्र) 
नाचिकेतमुपाख्यानं     मृत्युप्रोक्तं सनातनम्। 
उक्त्वा श्रुत्वा च मेधावी ब्रह्मलोके महीयते॥१६॥

(बुद्धिमान पुरुष मृत्यु के देवता से कहे हुए नचिकेता-संबंधी उपाख्यान को कहकर और सुनकर ब्रह्मलोक में महिमान्वित होता है।)

कठोपनिषद्


प्रथम अध्याय 
तृतीय वल्ली   


(पन्द्रहवाँ मन्त्र)  
अशब्दमस्पर्शमरुपमव्ययं  तथाऽरसं नित्यमगन्धवच्च यत्।
अनाद्यनन्तं महत: परं ध्रुवं निचाय्य तन्मृत्युमुखात् प्रमुच्यते ॥१५॥

(जो शब्दरहित, स्पर्शरहित, रुपरहित, रसरहित और गन्धरहित है तथा अविनाशी, नित्य, अनादि, अनन्त है, (जो)  महत्तत्व (समष्टि बुद्धि अथवा अवयक्त प्रकृति) से भी परे है, जो ध्रुव तत्त्व है, उस परब्रह्म को जानकर (मनुष्य) मृत्यु के मुख से मुक्तहो जाता है।)

कठोपनिषद्


प्रथम अध्याय 
तृतीय वल्ली

(चौदहवाँ मन्त्र)
उत्तिष्ठत  जाग्रत प्राप्य वरान्निबोधत।
क्षुरस्य धारा निशिता दुरत्यया दुर्गं पथस्तत्कवयो वदन्ति ॥१४॥

(हे मनुष्यो) उठो, जागो (सचेत हो जाओ) । श्रेष्ठ (ज्ञानी) पुरुषों को प्राप्त (उनके पास जा) कर के ज्ञान प्राप्त करो । त्रिकालदर्शी (ज्ञानी पुरुष) उस पथ (तत्त्वज्ञान के मार्ग) को छुरे की तीक्ष्ण (लॉँघने में कठिन) धारा के (के सदृश)  दुर्गम (घोर कठिन) कहते हैं।

कठोपनिषद्


प्रथम अध्याय 
तृतीय वल्ली


(तेरहवाँ मंत्र )
यच्छे द्वाङ्मनसी प्राज्ञस्तद्यच्छेज्ज्ञान आत्मनि।
ज्ञानमात्मनि महति नियच्छेत्तद्यच्छान्त आत्मनि ॥१३॥

(ज्ञानी (बुद्धिमान्) पुरुष (को चाहिए कि वह) वाणी आदि इन्द्रियों को मन में संयत कर दे, उस मन को प्रकाशमय बुद्धि में विलीन कर दे, ज्ञानस्वरूप बुद्धि को महत् तत्त्व (अपरब्रह्म) में निरुद्ध कर दे, उस (समष्टि बुद्धि) को शान्त (निर्विकार, शुद्ध, बुद्ध) आत्मा में विलीन कर दे।)

कठोपनिषद्


प्रथम अध्याय
तृतीय वल्ली


(बारहवाँ मन्त्र) 


एष     सर्वेषु     भूतेषु     गूढोत्मा    न    प्रकाशते ।
दृश्यते त्वग्रयया बुद्धया सूक्ष्मया सूक्ष्मदर्शिभिः ॥१२॥

यह आत्मा (परमपुरुष) सब प्राणियों में छिपा हुआ रहता है, प्रत्यक्ष नहीं होता। सूक्ष्म दृष्टिवाले पुरुषों के द्वारा (ही) सूक्ष्म, तीक्ष्ण बुद्धि से (उसे) देखा जाता है।

कठोपनिषद्


प्रथम अध्याय 
तृतीय वल्ली


(ग्यारहवाँ मन्त्र)
महतः परमव्यक्तमव्यक्तात् पुरुषः परः।
पुरुषान्न परं किज्चित्सा काष्ठा सा परा गतिः ॥११॥         

(उस) महान् (जीवात्मा) से अधिक बलवान् अव्यक्त (परमात्मा की माया-शक्ति) होती है। अव्यक्त से भी श्रेष्ठ परमपुरुष (परमात्मा) है परमपुरुष से परे अथवा श्रेष्ठ कुछ भी नहीं होता। वही परमसीमा है । वही परम (सर्वोच्च, श्रेष्ठ) गति है।

कठोपनिषद्


प्रथम अध्याय
तृतीय वल्ली

(दसवाँ मन्त्र)

इन्द्रियेभ्यः परा ह्यर्था अर्थेभ्यश्च परं मनः।    
मनसस्तु परा बुद्धिर्बुद्धेरात्मा महान् परः ॥१०॥

(इन्द्रियों से (अर्थ) शब्दादि विषय अधिक बलवान् हैं और अर्थों (विषयों) से मन अधिक बलवान् है और मन से भी अधिक प्रबल बुद्धि है बुद्धि से महान् आत्मा अधिक बलवान् एवं श्रेष्ठ है।)

कठोपनिषद्


प्रथम अध्याय
तृतीय वल्ली


(सातवाँ मन्त्र)


यस्तवविज्ञानवान् भवत्यमनस्कः सदाऽशुचिः।     
न स तत्पदमाप्नोति संसारं चाधिगच्छति ॥७॥

(जो भी सदा विवेकहीन, असंयतमन, अपवित्र होता है वह उस परमपद को प्राप्त नहीं करता तथा संसारचक्र को ही प्राप्त होता है।)

(आठवाँ मन्त्र)


यस्तु विज्ञानवान् भवति समनस्कः सदासशुचिः।     
स तु तत्पदमाप्नोति यस्माद् भूयो न जायते ॥८॥

(और जो विवेकशील संयतमन, पवित्र होता है वह तो उस परमपद को प्राप्त कर लेता है जहाँ से (वह) पुनः (लौटकर) उत्पन्न नहीं होता।)

(नवाँ मन्त्र)


विज्ञानसारथिर्यस्तु मनःप्रग्रहवान् नरः।     
सोऽध्वनः पारमाप्नोति तद्विष्णोः परमं पदम् ॥९॥

(जो मनुष्य विवेकशील बुद्धिरूप सारथि से युक्त और मनरूप प्रग्रह (लगाम) को वश में रखनेवाला है वह (संसार) मार्ग पार करके विष्णु के उस (प्रसिद्ध) परम पद को प्राप्त कर लेता है।)


कठोपनिषद्


प्रथम अध्याय
तृतीय वल्ली


(पांचवां मन्त्र)
यस्त्वविज्ञानवान् भवत्ययुक्तेन मनसा सदा।
तस्येन्द्रियाण्यवश्यानि दुष्टाश्वा इव सारथेः ॥५॥

(जो सदा अविवेकी बुद्धिवाला और अनियंत्रित मनवाला होता है, उसकी इन्द्रियाँ सारथि के दुष्ट घोड़ों की भाँति वश में नहीं रहतीं हैं।)

(छठा मन्त्र)
यस्तु विज्ञानवान् भवति युक्तेन मनसा सदा।
तस्येन्द्रियाणि वश्यानि सदश्वा इव सारथेः ॥६॥

(और जो सदा विवेकशील बुद्धिवाला और नियंत्रित मनवाला होता है उसकी इन्द्रियाँ सारथि के अच्छे घोड़ों की भाँति वश में रहतीं हैं।)

कठोपनिषद्


प्रथम अध्याय
तृतीय वल्ली


(तृतीय मन्त्र)


आत्मानं रथिनं विद्धि शरीरं रथमेव तु।
बुद्धिं तु सारथिं विद्धि मनः प्रग्रहमेव च ॥३॥

जीवात्मा को रथ का स्वामी समझो और शरीर को ही रथ (समझो) और बुद्धि को सारथि (रथ चलानेवाला) समझो और मन को ही लगाम समझो।

(चतुर्थ मन्त्र)


इन्द्रियाणि हयानाहुर्विषयांस्तेषु गोचरान्।
आत्मेन्द्रियमनोयक्तं भोक्तेत्याहुर्मनीषिणः ॥४॥

मनीषीजन इन्द्रियों को घोड़े कहते हैं विषयों (भोग के पदार्थों) को उनके गोचर (विचरने का मार्ग) कहते हैं शरीर, इन्द्रिय और मन से युक्त (जीवात्मा) को भोक्ता है, ऐसा कहते हैं।

कठोपनिषद्


प्रथम अध्याय
तृतीय वल्ली 


(द्वितीय मन्त्र)


यः सेतुरीजानानामक्षरं ब्रह्म यत्परम्।    
अभयं तितीर्षतां पारं नाचिकेतं शकेमहि ॥२॥

[(यमराज परमात्मा से प्रार्थना करते हैं कि हे परमात्मन् !)  जो यज्ञ करने वालों के लिए सेतु हैं (उस) नाचिकेत अग्नि (तथा) जो संसार-सागर को पार करने की इच्छावालों के लिए अभयपद हैं (उस) अविनाशी परब्रह्म को हम जानने में समर्थ हों।]

कठोपनिषद्


प्रथम अध्याय
तृतीय वल्ली 
(प्रथम मन्त्र)

ऋतं पिबन्तौ सुकृतस्य लोके गुहां प्रविष्टौ परमें परार्धे।
छायातपौ ब्रह्मविदो वदन्ति पज्चाग्नयो ये च त्रिणाचिकेताः ॥१॥

(पुण्यों (शुभकर्मों) के फलस्वरूप लोक में (मानवदेह के भीतर) श्रेष्ठ स्थल (हृदयप्रदेश) में परब्रह्म के परमोच्च निवास (हृदय की गुहा) में स्थित ऋत (सत्य का) पान करनेवाले दो (जीवात्मा और परमात्मा) छाया और आतप (प्रकाश, धूप) के सदृश रहते हैं ब्रह्मवेत्ता ऐसा करते हैं और तीन बार नाचिकेत अग्नि का चयन करनेवाले तथा पज्चाग्नि यज्ञ करने वाले (कर्मकाण्डी) गृहस्थजन भी ऐसा ही कहते हैं।)