कठोपनिषद्


प्रथम अध्याय
तृतीय वल्ली

(दसवाँ मन्त्र)

इन्द्रियेभ्यः परा ह्यर्था अर्थेभ्यश्च परं मनः।    
मनसस्तु परा बुद्धिर्बुद्धेरात्मा महान् परः ॥१०॥

(इन्द्रियों से (अर्थ) शब्दादि विषय अधिक बलवान् हैं और अर्थों (विषयों) से मन अधिक बलवान् है और मन से भी अधिक प्रबल बुद्धि है बुद्धि से महान् आत्मा अधिक बलवान् एवं श्रेष्ठ है।)

कठोपनिषद्


प्रथम अध्याय
तृतीय वल्ली


(सातवाँ मन्त्र)


यस्तवविज्ञानवान् भवत्यमनस्कः सदाऽशुचिः।     
न स तत्पदमाप्नोति संसारं चाधिगच्छति ॥७॥

(जो भी सदा विवेकहीन, असंयतमन, अपवित्र होता है वह उस परमपद को प्राप्त नहीं करता तथा संसारचक्र को ही प्राप्त होता है।)

(आठवाँ मन्त्र)


यस्तु विज्ञानवान् भवति समनस्कः सदासशुचिः।     
स तु तत्पदमाप्नोति यस्माद् भूयो न जायते ॥८॥

(और जो विवेकशील संयतमन, पवित्र होता है वह तो उस परमपद को प्राप्त कर लेता है जहाँ से (वह) पुनः (लौटकर) उत्पन्न नहीं होता।)

(नवाँ मन्त्र)


विज्ञानसारथिर्यस्तु मनःप्रग्रहवान् नरः।     
सोऽध्वनः पारमाप्नोति तद्विष्णोः परमं पदम् ॥९॥

(जो मनुष्य विवेकशील बुद्धिरूप सारथि से युक्त और मनरूप प्रग्रह (लगाम) को वश में रखनेवाला है वह (संसार) मार्ग पार करके विष्णु के उस (प्रसिद्ध) परम पद को प्राप्त कर लेता है।)


कठोपनिषद्


प्रथम अध्याय
तृतीय वल्ली


(पांचवां मन्त्र)
यस्त्वविज्ञानवान् भवत्ययुक्तेन मनसा सदा।
तस्येन्द्रियाण्यवश्यानि दुष्टाश्वा इव सारथेः ॥५॥

(जो सदा अविवेकी बुद्धिवाला और अनियंत्रित मनवाला होता है, उसकी इन्द्रियाँ सारथि के दुष्ट घोड़ों की भाँति वश में नहीं रहतीं हैं।)

(छठा मन्त्र)
यस्तु विज्ञानवान् भवति युक्तेन मनसा सदा।
तस्येन्द्रियाणि वश्यानि सदश्वा इव सारथेः ॥६॥

(और जो सदा विवेकशील बुद्धिवाला और नियंत्रित मनवाला होता है उसकी इन्द्रियाँ सारथि के अच्छे घोड़ों की भाँति वश में रहतीं हैं।)

कठोपनिषद्


प्रथम अध्याय
तृतीय वल्ली


(तृतीय मन्त्र)


आत्मानं रथिनं विद्धि शरीरं रथमेव तु।
बुद्धिं तु सारथिं विद्धि मनः प्रग्रहमेव च ॥३॥

जीवात्मा को रथ का स्वामी समझो और शरीर को ही रथ (समझो) और बुद्धि को सारथि (रथ चलानेवाला) समझो और मन को ही लगाम समझो।

(चतुर्थ मन्त्र)


इन्द्रियाणि हयानाहुर्विषयांस्तेषु गोचरान्।
आत्मेन्द्रियमनोयक्तं भोक्तेत्याहुर्मनीषिणः ॥४॥

मनीषीजन इन्द्रियों को घोड़े कहते हैं विषयों (भोग के पदार्थों) को उनके गोचर (विचरने का मार्ग) कहते हैं शरीर, इन्द्रिय और मन से युक्त (जीवात्मा) को भोक्ता है, ऐसा कहते हैं।

कठोपनिषद्


प्रथम अध्याय
तृतीय वल्ली 


(द्वितीय मन्त्र)


यः सेतुरीजानानामक्षरं ब्रह्म यत्परम्।    
अभयं तितीर्षतां पारं नाचिकेतं शकेमहि ॥२॥

[(यमराज परमात्मा से प्रार्थना करते हैं कि हे परमात्मन् !)  जो यज्ञ करने वालों के लिए सेतु हैं (उस) नाचिकेत अग्नि (तथा) जो संसार-सागर को पार करने की इच्छावालों के लिए अभयपद हैं (उस) अविनाशी परब्रह्म को हम जानने में समर्थ हों।]

कठोपनिषद्


प्रथम अध्याय
तृतीय वल्ली 
(प्रथम मन्त्र)

ऋतं पिबन्तौ सुकृतस्य लोके गुहां प्रविष्टौ परमें परार्धे।
छायातपौ ब्रह्मविदो वदन्ति पज्चाग्नयो ये च त्रिणाचिकेताः ॥१॥

(पुण्यों (शुभकर्मों) के फलस्वरूप लोक में (मानवदेह के भीतर) श्रेष्ठ स्थल (हृदयप्रदेश) में परब्रह्म के परमोच्च निवास (हृदय की गुहा) में स्थित ऋत (सत्य का) पान करनेवाले दो (जीवात्मा और परमात्मा) छाया और आतप (प्रकाश, धूप) के सदृश रहते हैं ब्रह्मवेत्ता ऐसा करते हैं और तीन बार नाचिकेत अग्नि का चयन करनेवाले तथा पज्चाग्नि यज्ञ करने वाले (कर्मकाण्डी) गृहस्थजन भी ऐसा ही कहते हैं।)

कठोपनिषद्


(पचीसवाँ मन्त्र)


यस्य ब्रह्म च क्षत्रं च उभे भवत ओदनः।
मृत्युर्यस्योपसेचनं क इत्था वेद यत्र सः॥ २५॥

जिस (आत्मा) के लिए ब्रह्म (बुद्धिबल) और क्षत्र (बाहुबल) दोनों पके हुए चावल (भोजन) हो जाते हैं मृत्यु जिसका उपसेचन (चटनी) है वह (आत्मा) जहाँ (या कहाँ) कैसा है, कौन जानता है?

कठोपनिषद्


(चौबीसवाँ मन्त्र)

नाविरतो दुश्चरितान्नाशान्तो नासमाहित:।
नाशान्तमानसो वापि प्रज्ञानेनैनमाप्नुयात्॥ २४॥

जो दुराचार (दुष्कर्म) से निवृत्त (हटा) न हुआ हो, जो चञ्चल (अशान्त) है, जो प्रमादी है, सावधान (संयमी) नहीं है, जिसके मन में क्षोभ (अशांति) है, वह प्रज्ञान (सूक्ष्म बुद्धि) से भी इस आत्मा को नहीं प्राप्त कर सकता है।

कठोपनिषद्


(तेइसवां मन्त्र)

नायमात्मा प्रवचनेन लभ्यो न मेधया न बहुना श्रुतेन।
यमेवैष वृणुते तेन लभ्यस्तस्यैष आत्मा विवृणुते तनूं स्वाम्॥ २३॥


(
यह आत्मा न प्रवचन से, न मेधा (बुद्धि) से, न बहुत श्रवण करने से प्राप्त होता है जिसको यह स्वीकार कर लेता है उसको ही प्राप्त होता है यह आत्मा  उसके लिए अपने स्वरूप को प्रकट कर देता है।)

कठोपनिषद्


(बाइसवां मन्त्र) 

अशरीरं शरीरेष्वनवस्थेष्ववस्थितम्।
महान्तं विभुमात्मानं मत्वा धीरो न शोचति॥ २२॥


नश्वर शरीरों में अशरीरी होकर स्थित (उस) महान् सर्वव्यापक परमात्मा को जानकर ध्रीर (विवेकशील) पुरुष कोई शोक नहीं करता।

कठोपनिषद् 

प्रथम अध्याय द्वितीय वल्ली

(इक्कीसवाँ मन्त्र)

आसीनो दूरं व्रजति शयानो याति सर्वत:।
कस्तं मदामदं देवं मदन्यो ज्ञातुमहर्ति॥ २१॥

(परमात्मा) बैठा हुआ भी दूर पहुँच जाता है, सोता हुआ भी सब ओर चला जाता है, उस मद से 
युक्त होकर भी मदान्वित न होनेवाले देव को, मेरे अतिरिक्त कौन जानने में समर्थ है?

कठोपनिषद्


(बीसवां मन्त्र)

अणोरणीयान्महतो महीयानात्मास्य जन्तोर्निहितो गुहायाम्।
तमक्रतु: पश्यति वीतशोको धातुप्रसादान्महिमानमात्मन:॥२०॥

इस देहधारी मनुष्य के हृदयरूप गुहा में स्थित आत्मा (परमात्मा) अणु से भी छोटा, महान् से भी बड़ा है। आत्मा (परमात्मा) की उस महिमा को निष्काम व्यक्ति भगवान् की कृपा से (मन तथा इन्द्रियों की निर्मलता होने पर) साक्षात् देख लेता है और (समस्त) दुःखों से पार हो जाता है।

कठोपनिषद्

प्रथम अध्याय द्वितीय वल्ली
(उन्नीसवाँ मन्त्र)

हन्ता चेन्मन्यते हन्तुं हतश्चेन्मन्यते हतम्।
उभौ तौ न विजानीतो नायं हन्ति न हन्यते॥ १९॥


यदि कोई मारनेवाला स्वयं को मारने में समर्थ मानता है और यदि मारा जानेवाला स्वयं को मारा गया मानता है, वे दोनों ही (सत्य को) नहीं जानते। यह आत्मा न मारता है, न मारा जाता है।

कठोपनिषद्

(अठारहवाँ मन्त्र)
न जायते म्रियते वा विपश्चिन्नायं कुतश्चिन्न बभूव कश्चित्।
अजो नित्य: शाश्वतोऽयं पुराणो न हन्यते हन्यमाने शरीरे॥ १८॥
(आत्मा न जन्म लेता है और न मृत्यु को प्राप्त होता है। यह न तो किसी से उत्पन्न हुआ है  इससे कोई उत्पन्न हुआ है। यह अजन्मा, नित्य शाश्वत, पुरातन है। शरीर के नष्ट हो जाने पर इसका नाश नहीं होता।)

कठोपनिषद्

प्रथम अध्याय द्वितीय वल्ली
(सत्रहवाँ मन्त्र)

एतदालम्बनं श्रेष्ठमेतदालम्बनं परम्।
एतदावम्बनं ज्ञात्वा ब्रह्मलोके महीयते॥
१७॥

यह (ॐकार ही) श्रेष्ठ आलम्बन (आश्रय) है, यह आलम्बन सर्वोपरि है, इस आलम्बन को जानकर ब्रह्मलोक में महिमान्वित (आनन्दित) होता है।



कठोपनिषद्

प्रथम अध्याय द्वितीय वल्ली
(सोलहवां मन्त्र)

एतद्धेवाक्षरं ब्रह्म एतद्धेवाक्षरं परम्।
एतद्धेवाक्षरं ज्ञात्वा यो यदिच्छति तस्य तत्॥ १६॥


निश्चयरूप से यह (ॐ) अक्षर (नाश न होने वाला) ही तो ब्रह्म है यह ही परम (सर्वश्रेष्ठ) अक्षर हैइसीलिए इसी अक्षर को जानकर जो जिस विषय की इच्छा करता है उसको वह प्राप्त हो जाता है

कठोपनिषद्

(पन्द्रहवाँ मन्त्र)

सर्वे वेदा यत् पदमामनन्ति तपांसि सर्वाणि च यद् वदन्ति।
यदिच्छन्तो ब्रह्मचर्यं चरन्ति तत्ते पदं संग्रहेण ब्रवीम्योमित्येतत्॥ १५॥

सारे वेद जिस पद का प्रतिपादन करते हैं और सारे तप जिस
लक्ष्य की महिमा का गान करते हैं, जिसकी इच्छा करते हुए (साधकगण) ब्रह्मचर्य के नियमों का पालन करते हैं, उस पद को तुम्हारे (नचिकेता के) लिए संक्षेप में कहता हूँ, ओम् () ऐसा यह अक्षर है।

कठोपनिषद्

(चौदहवां मन्त्र)

अन्यत्र धर्मादन्यत्राधर्मादन्यत्रास्मात्कृताकृतात्।
अन्यत्र भूताच्च भव्याच्च यत्तत्पश्यसि तद्वद॥ १४॥

(नचिकेता ने कहा) धर्म (कर्त्तव्य रूप आचरण) से .पृथक्, अधर्म (अकर्त्तव्य) से भी पृथक्, इस कृत और अकृत (कार्य और कारण) से भिन्न, भूत, भविष्य और वर्तमान (तीनों कालों) से भी अलग, आप जिस उस (परमात्मा) आत्मतत्त्व को जानते हैं, उसे कहें।

कठोपनिषद्

(तेरहवां मन्त्र)

एतच्छ्रुत्वा सम्परिगृह्य मर्त्यः प्रवृह्य धर्म्यमणुमेतमाप्य।
स मोदते मोदनीयं हि लब्ध्वा विवृतं सद्म नचिकेतसं मन्ये॥ १३॥

मनुष्य इस इस धर्ममय (उपदेश) को सुनकर और भली प्रकार से ग्रहण करके (तथा) बारम्बार अभ्यास करके, इस सूक्ष्म आत्मतत्त्व को जानकर उस आनन्दस्वरूप परब्रह्म परमात्मा को प्राप्त कर निश्चय ही आनन्दमग्न हो जाता है। (तुम) नचिकेता के लिए मैं परमधाम का द्वार खुला हुआ मानता हूँ।



कठोपनिषद्

प्रथम अध्याय द्वितीय वल्ली

(बारहवां मन्त्र)

तं दुर्दर्शं गूढमनुप्रविष्टं गुहाहितं गव्हरेष्ठं पुराणम्।
अध्यात्मयोगाधिगमेन देवं मत्वा धीरो हर्षशोकौ जहाति॥ १२॥

उस कठिनता से प्राप्त करने योग्य, सूक्ष्म, अन्तःकरण और आत्मा में व्यापक, हृद्याकाश में स्थित, दुष्प्राप्य, नित्य (सनातन) देव (परमात्मा) को अध्यात्म (आत्मा सम्बन्धी) योग के अभ्यास से जानकर, विद्वान् पुरुष हर्ष और शोक (सुख-दुःख) दोनों को छोड़ देता है

कठोपनिषद्

प्रथम अध्याय द्वितीय वल्ली

(ग्यारहवां मन्त्र)

कामस्याप्तिं जगतः प्रतिष्ठां क्रतोरनन्त्यमभयस्य पारम्।
स्योममहदुरुगायं प्रतिष्ठां दृष्टवा धृत्या धीरो नचिकेतोत्यस्त्राक्षीः॥ ११॥

(हे नचिकेता ! तुमने भोग सम्बन्धी कामनाओं की प्राप्ति को, जगत की प्रतिष्ठा को, यज्ञादि के फल को, लौकिक निर्भीक्ता की पराकाष्ठा को, स्तुति योग्य महिमा और प्रतिष्ठा को, वेदों में जिसका गुणगान है ऐसे स्वर्ग को, (असार) देखकर स्थिरता के साथ (धैर्य पूर्वक विचार करके) छोड़ दिया है (इसलिए तुम) धीर (ज्ञानी) हो।)

कठोपनिषद्

प्रथम अध्याय द्वितीय वल्ली
(दसवां मन्त्र)
10th Mantra of second Valli (Kathopanishada)
जानाम्यहं शेवधिरित्यनित्यं न ह्यध्रुवैः प्राप्यते हि ध्रुवं तत्।
ततो मया नाचिकेतश्चितोमन्गिरनित्यैर्द्रव्यैः प्राप्तवानस्मि नित्यम्॥ १०॥

(मैं जानता हूँ कि धन, ऐश्वर्य अनित्य है। निश्चय ही अस्थिर साधनों से वह अचल तत्त्व (आत्मा) प्राप्त नहीं किया जा सकता। अतएव मेरे द्वारा नाचिकेत अग्नि का चयन किया गया और मैं अनित्य पदार्थों के द्वारा नित्य (ब्रह्म) को प्राप्त हो गया हूँ।)
Nachiketa agreed: “I know that earthly treasures are temporary because the eternal can never be attained by things which are non-eternal.  There for the Nachiketa fire (sacrifice) has been performed by me with transient things, I have obtained the eternal.”

कठोपनिषद्

प्रथम अध्याय द्वितीय बल्ली
(नौवाँ मन्त्र)

9th Mantra of Second Valli (Kathopanishada)
नैषा तर्केण मतिरापनेया प्रोक्तान्येनैव सुज्ञानाय प्रेष्ठ।
यां त्वमापः सत्यधृतिर्बतासि त्वादृक् नो भूयान्नचिकेतः प्रष्टा॥ ९॥

(हे परमप्रिय नचिकेता ! यह बुद्धि, जिसे तुमने प्राप्त किया है, तर्क से प्राप्त नहीं होती। अन्य (विद्वान्) के द्वारा कहे जाने पर भली प्रकार समझ में आ सकती है। वास्तव में, नचिकेता, तुम सत्यनिष्ठ हो। तुम्हारे सदृश प्रश्न पूछनेवाले हमें मिलें।)

This awakening you have known comes not through argument but It is truly known only when taught by another enlightened scholar (Who realized the supreme being). O beloved Nachiketa! You are indeed a man of real determination because you seek the Self eternal. May we have more seekers like you!

शान्तिपाठ

ॐ सह नाववतु। सह नौ भुनक्तु। सह वीर्यं करवावहै।
तेजस्वि नावधीतमस्तु। मा विद्विषावहै।
ॐ शान्ति:! शान्ति:!! शान्ति:!!!

(हे परमात्मन् आप हम दोनों गुरु और शिष्य की साथ- साथ रक्षा करें, हम दोनों का पालन-पोषण करें, हम दोनों साथ-साथ शक्ति प्राप्त करें, हमारी प्राप्त की हुई विद्या तेजप्रद हो, हम परस्पर द्वेष न करें, परस्पर स्नेह करें। हे परमात्मन् त्रिविध ताप की शान्ति हो। आध्यात्मिक ताप (मन के दु:ख) की, अधिभौतिक ताप (दुष्ट जन और हिंसक प्राणियों से तथा दुर्घटना आदि से प्राप्त दु:ख) की शान्ति हो।)
 
Aum! May Brahman (the Supreme Being) protect us both (The Guru and Shishya), May He give enjoyment us! May we attain strength! May our study be illuminative! May there be no jealous among us! 

                                 AUM! PEACE! PEACE! PEACE!

कठोपनिषद

प्रथम अध्याय द्वितीय बल्ली
(आठवां मन्त्र)
8th Mantra of Second Valli (Kathopanishada)    
न नरेणावरेण प्रोक्त एष सुविज्ञेयो बहुधा चिन्त्यमानः।
अनन्यप्रोक्ते गतिरत्र अमीयान् ह्यतर्क्यमणुप्रमाणात्॥ ८॥
अवर (साधारण,अल्पज्ञ) मनुष्य से उपदेश किए, बहुत प्रकार से चिन्तन किए जाने पर (भी) यह आत्मा सुगमता से जानने योग्य नहीं है। ईश्वर के किसी अनन्य भक्त (आत्मज्ञानी) के द्वारा उपदेश किये जाने पर इस आत्मा (के विषय) में सन्देह नहीं होता। यह आत्मा अणु के प्रमाण (सूक्ष्म) से भी अति सूक्ष्म है और निश्चय ही तर्क करने योग्य नहीं है।
Taught by an inferior person (ordinary ignorant) who has not realized that he is the Self, this Atman cannot be truly known. There is no doubt remained when it is taught by an exclusive devotee of God (an illumined teacher) who has become one with Atman (The Self), for It (Self) is subtler than the subtle and beyond argument.

कठोपनिषद

प्रथम अध्याय द्वितीय बल्ली
(सातवाँ मन्त्र)
7th Mantra of second Valli (Kathopanishada)
श्रवणायापि बहुरभिर्यो न लक्ष्यः श्रृण्वन्तोपि बहवो यं न विद्युः।
आश्चर्यो वक्ता कुशलोस्य लब्धाश्चर्यो ज्ञाता कुशलानुशिष्टः॥ ७॥
जो (आत्मज्ञान‌) बहुत से मनुष्यों को सुनने को भी नहीं मिलता, बहुत से मनुष्य सुनकर भी जिसे समझ नहीं पाते, इस आत्म-ज्ञान का वक्ता आश्चर्यमय है, प्रवीण पुरुष से उपदेश पाया हुआ (आत्मतत्त्व का) जानने वाला पुरुष आश्चर्यमय है।
There are so many people who do not even hear of Atman (Self knowledge), many can’t understand even after hearing about Him. Wonderful is the one who speaks about the Self and wonderful the listener who attain to self realization through an illumined teacher.