कठोपनिषद्


(तेइसवां मन्त्र)

नायमात्मा प्रवचनेन लभ्यो न मेधया न बहुना श्रुतेन।
यमेवैष वृणुते तेन लभ्यस्तस्यैष आत्मा विवृणुते तनूं स्वाम्॥ २३॥


(
यह आत्मा न प्रवचन से, न मेधा (बुद्धि) से, न बहुत श्रवण करने से प्राप्त होता है जिसको यह स्वीकार कर लेता है उसको ही प्राप्त होता है यह आत्मा  उसके लिए अपने स्वरूप को प्रकट कर देता है।)

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