कठोपनिषद्

प्रथम अध्याय द्वितीय वल्ली
First Chapter (Second Valli)
1st Mantra


(प्रथम मन्त्र)

अन्यच्छेयोऽन्यदुतैव प्रेयस्ते उभे नानार्भे पुरुषं सिनीतः।
तयोः श्रेय आददानस्य साधु भवति हीयतेऽर्थाद्य उ प्रेयो वृणीते ॥१॥

(श्रेय) कल्याण का मार्ग अलग
है और (प्रेय) प्रिय लगाने वाले भोगों का मार्ग अलग ही है वे दोनों भिन्न-भिन्न अर्थ में मनुष्य को बाँधते हैं उन दोनों में से श्रेय (कल्याण के मार्ग को) ग्रहण करने वाले पुरुष का कल्याण होता है और जो प्रेय को ग्रहण करता है वह उद्देश्य (यथार्थ) से गिर जाता है।


The path of The Good (श्रेय) is different and the path of pleasure (प्रेय) is different. These two, having different ends, bind man in different manner. The one who choose the path of The Good among these two, reach the Good (The highest end) and the one who select the path of pleasure will fall down (will not reach the end).

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