कठोपनिषद

28th Mantra of Kathopanishada.
(कठोपनिषद का अट्ठाइसवां मन्त्र)
अजीर्यताममृतानामुपेत्य जीर्यन् मर्त्यः व्कधःस्थः प्रजानन्।
अभिध्यायन् वर्णरतिप्रमोदानदीर्घे जीविते को रमेत ॥२८॥
(नचिकेता ने कहा) (बुढ़ापे से) जीर्ण होने वाला मरणधर्मा मनुष्य,जीर्णता को प्राप्त न होनेवाले देवताओं (मुक्त पुरुषों) के सानिध्य में,आत्मविद्या को प्राप्त होकर,आत्मतत्त्व की महिमा को जानकर पृथ्वी के अधोभाग में स्थित होकर,सुन्दर वर्ण और स्त्री प्रसंग से हुए भौतिक सुखों (की व्यर्थता) का विचार करता हुआ कौन अतिदीर्घ काल तक जीवित रहने में रुचि लेगा?
(Nachiketa said :) “Which mortal, who under goes decay, having approached the undecaying immortal one, and having shall consider the pleasures produced by song and sport (beauty and love), would delight in long life?”


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