द्वितीय अध्याय
तृतीय वल्ली
(चतुर्थ मन्त्र)
इह चेदशकद् बोद्धुं प्राक् शरीरस्य विस्त्रस:।
तत: सर्गेषु लोकेषु शरीरत्वाय कल्पते।। ४।।
(यदि शरीर के छूटने (मृत्यु) से पूर्व, इस शरीर में ही (आत्मा) को जानने में समर्थ हो सका (तो ही उचित है) अन्यथा सर्गों (कल्पों) तक लोकों में शरीरभाव को प्राप्त (होने को विवश) होता रहेगा।)
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें