कठोपनिषद्


द्वितीय अध्याय 
द्वितीय वल्ली
(आठवाँ मन्त्र)


य एष सुप्मेषु जागर्ति कामं कामं पुरूषो निर्मिमाणः।
तदेव शुक्रं तद् ब्रह्म तदेवामृतमुच्यते।
तस्मिल्लोकाः श्रिताः सर्वे तदु नात्योति कश्चन।। एतद् वै तत्।। ८।। 

(जो यह काम्य (कर्मानुसार) भोगो का निर्माण करने वाला परमपुरूष (परमात्मा) है सबके सो जाने पर (प्रलयकाल मे) भी जागता रहता है, वही विशुद्ध (शुभ्र ज्योति स्वरूप) तत्व है। वही ब्रह्म है। वही अमृत (अविनाशी) कहा जाता है। उसीमे सारे लोक  आश्रित  है, कोई भी उसका अतिक्रमण नही करता है। यही तो वह है (जिसे तुम (नचिकेता) ने पूछा है।)

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