द्वितीय अध्याय
द्वितीय वल्ली
(प्रथम मन्त्र)
पुरमेकादशद्वारमजस्यावक्रचेतस:
अनुष्ठाय न शोचति विमुक्तिश्च विमुच्यते।। एतद् वै तत्।। १।।
(सरल (निर्विकार) अज (जन्मरहित) परमात्मा का ग्यारह द्वारवाला पुर (निवासस्थान) (मनुष्य-देह) है। परमात्मा का अनुष्ठान (ध्यान आदि साधना) करके मनुष्य (दुःख, भय और चिन्ता से) मुक्त होकर, विमुक्त हो जाता है। यह ही तो वह है।)
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