द्वितीय अध्याय
प्रथम वल्ली
(चौदहवाँ मन्त्र)
यथोदकं दुर्गे वृष्टं पर्वतेषु विधावति।
एवं धर्मान् पृथक् पश्यंस्तानेवानुविधावति।। १४।।
(जिस प्रकार दुर्ग (उच्च शिखर) पर बरसा हुआ जल पर्वतों में इधर-उधर दौड़ता है (बह जाता है), उसी प्रकार शरीरभेदों (धर्म-स्वभावों) को पृथक्-पृथक् देखनेवाला मनुष्य उन्हीं के पीछे दौड़ता है (अनुसरण करता है)।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें