कठोपनिषद्


द्वितीय अध्याय 
प्रथम वल्ली
(चौदहवाँ  मन्त्र)


यथोदकं दुर्गे वृष्टं पर्वतेषु विधावति।   
एवं धर्मान् पृथक् पश्यंस्तानेवानुविधावति।। १४।।

(जिस प्रकार दुर्ग (उच्च शिखर) पर बरसा हुआ जल पर्वतों में इधर-उधर दौड़ता है (बह जाता है), उसी प्रकार शरीरभेदों (धर्म-स्वभावों) को पृथक्-पृथक् देखनेवाला मनुष्य उन्हीं के पीछे दौड़ता है (अनुसरण करता है)।

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