कठोपनिषद्


प्रथम अध्याय 
तृतीय वल्ली   


(पन्द्रहवाँ मन्त्र)  
अशब्दमस्पर्शमरुपमव्ययं  तथाऽरसं नित्यमगन्धवच्च यत्।
अनाद्यनन्तं महत: परं ध्रुवं निचाय्य तन्मृत्युमुखात् प्रमुच्यते ॥१५॥

(जो शब्दरहित, स्पर्शरहित, रुपरहित, रसरहित और गन्धरहित है तथा अविनाशी, नित्य, अनादि, अनन्त है, (जो)  महत्तत्व (समष्टि बुद्धि अथवा अवयक्त प्रकृति) से भी परे है, जो ध्रुव तत्त्व है, उस परब्रह्म को जानकर (मनुष्य) मृत्यु के मुख से मुक्तहो जाता है।)

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प्रथम अध्याय 
तृतीय वल्ली

(चौदहवाँ मन्त्र)
उत्तिष्ठत  जाग्रत प्राप्य वरान्निबोधत।
क्षुरस्य धारा निशिता दुरत्यया दुर्गं पथस्तत्कवयो वदन्ति ॥१४॥

(हे मनुष्यो) उठो, जागो (सचेत हो जाओ) । श्रेष्ठ (ज्ञानी) पुरुषों को प्राप्त (उनके पास जा) कर के ज्ञान प्राप्त करो । त्रिकालदर्शी (ज्ञानी पुरुष) उस पथ (तत्त्वज्ञान के मार्ग) को छुरे की तीक्ष्ण (लॉँघने में कठिन) धारा के (के सदृश)  दुर्गम (घोर कठिन) कहते हैं।

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प्रथम अध्याय 
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(तेरहवाँ मंत्र )
यच्छे द्वाङ्मनसी प्राज्ञस्तद्यच्छेज्ज्ञान आत्मनि।
ज्ञानमात्मनि महति नियच्छेत्तद्यच्छान्त आत्मनि ॥१३॥

(ज्ञानी (बुद्धिमान्) पुरुष (को चाहिए कि वह) वाणी आदि इन्द्रियों को मन में संयत कर दे, उस मन को प्रकाशमय बुद्धि में विलीन कर दे, ज्ञानस्वरूप बुद्धि को महत् तत्त्व (अपरब्रह्म) में निरुद्ध कर दे, उस (समष्टि बुद्धि) को शान्त (निर्विकार, शुद्ध, बुद्ध) आत्मा में विलीन कर दे।)

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(बारहवाँ मन्त्र) 


एष     सर्वेषु     भूतेषु     गूढोत्मा    न    प्रकाशते ।
दृश्यते त्वग्रयया बुद्धया सूक्ष्मया सूक्ष्मदर्शिभिः ॥१२॥

यह आत्मा (परमपुरुष) सब प्राणियों में छिपा हुआ रहता है, प्रत्यक्ष नहीं होता। सूक्ष्म दृष्टिवाले पुरुषों के द्वारा (ही) सूक्ष्म, तीक्ष्ण बुद्धि से (उसे) देखा जाता है।

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(ग्यारहवाँ मन्त्र)
महतः परमव्यक्तमव्यक्तात् पुरुषः परः।
पुरुषान्न परं किज्चित्सा काष्ठा सा परा गतिः ॥११॥         

(उस) महान् (जीवात्मा) से अधिक बलवान् अव्यक्त (परमात्मा की माया-शक्ति) होती है। अव्यक्त से भी श्रेष्ठ परमपुरुष (परमात्मा) है परमपुरुष से परे अथवा श्रेष्ठ कुछ भी नहीं होता। वही परमसीमा है । वही परम (सर्वोच्च, श्रेष्ठ) गति है।

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(दसवाँ मन्त्र)

इन्द्रियेभ्यः परा ह्यर्था अर्थेभ्यश्च परं मनः।    
मनसस्तु परा बुद्धिर्बुद्धेरात्मा महान् परः ॥१०॥

(इन्द्रियों से (अर्थ) शब्दादि विषय अधिक बलवान् हैं और अर्थों (विषयों) से मन अधिक बलवान् है और मन से भी अधिक प्रबल बुद्धि है बुद्धि से महान् आत्मा अधिक बलवान् एवं श्रेष्ठ है।)

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(सातवाँ मन्त्र)


यस्तवविज्ञानवान् भवत्यमनस्कः सदाऽशुचिः।     
न स तत्पदमाप्नोति संसारं चाधिगच्छति ॥७॥

(जो भी सदा विवेकहीन, असंयतमन, अपवित्र होता है वह उस परमपद को प्राप्त नहीं करता तथा संसारचक्र को ही प्राप्त होता है।)

(आठवाँ मन्त्र)


यस्तु विज्ञानवान् भवति समनस्कः सदासशुचिः।     
स तु तत्पदमाप्नोति यस्माद् भूयो न जायते ॥८॥

(और जो विवेकशील संयतमन, पवित्र होता है वह तो उस परमपद को प्राप्त कर लेता है जहाँ से (वह) पुनः (लौटकर) उत्पन्न नहीं होता।)

(नवाँ मन्त्र)


विज्ञानसारथिर्यस्तु मनःप्रग्रहवान् नरः।     
सोऽध्वनः पारमाप्नोति तद्विष्णोः परमं पदम् ॥९॥

(जो मनुष्य विवेकशील बुद्धिरूप सारथि से युक्त और मनरूप प्रग्रह (लगाम) को वश में रखनेवाला है वह (संसार) मार्ग पार करके विष्णु के उस (प्रसिद्ध) परम पद को प्राप्त कर लेता है।)


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(पांचवां मन्त्र)
यस्त्वविज्ञानवान् भवत्ययुक्तेन मनसा सदा।
तस्येन्द्रियाण्यवश्यानि दुष्टाश्वा इव सारथेः ॥५॥

(जो सदा अविवेकी बुद्धिवाला और अनियंत्रित मनवाला होता है, उसकी इन्द्रियाँ सारथि के दुष्ट घोड़ों की भाँति वश में नहीं रहतीं हैं।)

(छठा मन्त्र)
यस्तु विज्ञानवान् भवति युक्तेन मनसा सदा।
तस्येन्द्रियाणि वश्यानि सदश्वा इव सारथेः ॥६॥

(और जो सदा विवेकशील बुद्धिवाला और नियंत्रित मनवाला होता है उसकी इन्द्रियाँ सारथि के अच्छे घोड़ों की भाँति वश में रहतीं हैं।)

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(तृतीय मन्त्र)


आत्मानं रथिनं विद्धि शरीरं रथमेव तु।
बुद्धिं तु सारथिं विद्धि मनः प्रग्रहमेव च ॥३॥

जीवात्मा को रथ का स्वामी समझो और शरीर को ही रथ (समझो) और बुद्धि को सारथि (रथ चलानेवाला) समझो और मन को ही लगाम समझो।

(चतुर्थ मन्त्र)


इन्द्रियाणि हयानाहुर्विषयांस्तेषु गोचरान्।
आत्मेन्द्रियमनोयक्तं भोक्तेत्याहुर्मनीषिणः ॥४॥

मनीषीजन इन्द्रियों को घोड़े कहते हैं विषयों (भोग के पदार्थों) को उनके गोचर (विचरने का मार्ग) कहते हैं शरीर, इन्द्रिय और मन से युक्त (जीवात्मा) को भोक्ता है, ऐसा कहते हैं।

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(द्वितीय मन्त्र)


यः सेतुरीजानानामक्षरं ब्रह्म यत्परम्।    
अभयं तितीर्षतां पारं नाचिकेतं शकेमहि ॥२॥

[(यमराज परमात्मा से प्रार्थना करते हैं कि हे परमात्मन् !)  जो यज्ञ करने वालों के लिए सेतु हैं (उस) नाचिकेत अग्नि (तथा) जो संसार-सागर को पार करने की इच्छावालों के लिए अभयपद हैं (उस) अविनाशी परब्रह्म को हम जानने में समर्थ हों।]

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तृतीय वल्ली 
(प्रथम मन्त्र)

ऋतं पिबन्तौ सुकृतस्य लोके गुहां प्रविष्टौ परमें परार्धे।
छायातपौ ब्रह्मविदो वदन्ति पज्चाग्नयो ये च त्रिणाचिकेताः ॥१॥

(पुण्यों (शुभकर्मों) के फलस्वरूप लोक में (मानवदेह के भीतर) श्रेष्ठ स्थल (हृदयप्रदेश) में परब्रह्म के परमोच्च निवास (हृदय की गुहा) में स्थित ऋत (सत्य का) पान करनेवाले दो (जीवात्मा और परमात्मा) छाया और आतप (प्रकाश, धूप) के सदृश रहते हैं ब्रह्मवेत्ता ऐसा करते हैं और तीन बार नाचिकेत अग्नि का चयन करनेवाले तथा पज्चाग्नि यज्ञ करने वाले (कर्मकाण्डी) गृहस्थजन भी ऐसा ही कहते हैं।)

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(पचीसवाँ मन्त्र)


यस्य ब्रह्म च क्षत्रं च उभे भवत ओदनः।
मृत्युर्यस्योपसेचनं क इत्था वेद यत्र सः॥ २५॥

जिस (आत्मा) के लिए ब्रह्म (बुद्धिबल) और क्षत्र (बाहुबल) दोनों पके हुए चावल (भोजन) हो जाते हैं मृत्यु जिसका उपसेचन (चटनी) है वह (आत्मा) जहाँ (या कहाँ) कैसा है, कौन जानता है?

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(चौबीसवाँ मन्त्र)

नाविरतो दुश्चरितान्नाशान्तो नासमाहित:।
नाशान्तमानसो वापि प्रज्ञानेनैनमाप्नुयात्॥ २४॥

जो दुराचार (दुष्कर्म) से निवृत्त (हटा) न हुआ हो, जो चञ्चल (अशान्त) है, जो प्रमादी है, सावधान (संयमी) नहीं है, जिसके मन में क्षोभ (अशांति) है, वह प्रज्ञान (सूक्ष्म बुद्धि) से भी इस आत्मा को नहीं प्राप्त कर सकता है।

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(तेइसवां मन्त्र)

नायमात्मा प्रवचनेन लभ्यो न मेधया न बहुना श्रुतेन।
यमेवैष वृणुते तेन लभ्यस्तस्यैष आत्मा विवृणुते तनूं स्वाम्॥ २३॥


(
यह आत्मा न प्रवचन से, न मेधा (बुद्धि) से, न बहुत श्रवण करने से प्राप्त होता है जिसको यह स्वीकार कर लेता है उसको ही प्राप्त होता है यह आत्मा  उसके लिए अपने स्वरूप को प्रकट कर देता है।)

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(बाइसवां मन्त्र) 

अशरीरं शरीरेष्वनवस्थेष्ववस्थितम्।
महान्तं विभुमात्मानं मत्वा धीरो न शोचति॥ २२॥


नश्वर शरीरों में अशरीरी होकर स्थित (उस) महान् सर्वव्यापक परमात्मा को जानकर ध्रीर (विवेकशील) पुरुष कोई शोक नहीं करता।