कठोपनिषद्


(बाइसवां मन्त्र) 

अशरीरं शरीरेष्वनवस्थेष्ववस्थितम्।
महान्तं विभुमात्मानं मत्वा धीरो न शोचति॥ २२॥


नश्वर शरीरों में अशरीरी होकर स्थित (उस) महान् सर्वव्यापक परमात्मा को जानकर ध्रीर (विवेकशील) पुरुष कोई शोक नहीं करता।

कठोपनिषद् 

प्रथम अध्याय द्वितीय वल्ली

(इक्कीसवाँ मन्त्र)

आसीनो दूरं व्रजति शयानो याति सर्वत:।
कस्तं मदामदं देवं मदन्यो ज्ञातुमहर्ति॥ २१॥

(परमात्मा) बैठा हुआ भी दूर पहुँच जाता है, सोता हुआ भी सब ओर चला जाता है, उस मद से 
युक्त होकर भी मदान्वित न होनेवाले देव को, मेरे अतिरिक्त कौन जानने में समर्थ है?

कठोपनिषद्


(बीसवां मन्त्र)

अणोरणीयान्महतो महीयानात्मास्य जन्तोर्निहितो गुहायाम्।
तमक्रतु: पश्यति वीतशोको धातुप्रसादान्महिमानमात्मन:॥२०॥

इस देहधारी मनुष्य के हृदयरूप गुहा में स्थित आत्मा (परमात्मा) अणु से भी छोटा, महान् से भी बड़ा है। आत्मा (परमात्मा) की उस महिमा को निष्काम व्यक्ति भगवान् की कृपा से (मन तथा इन्द्रियों की निर्मलता होने पर) साक्षात् देख लेता है और (समस्त) दुःखों से पार हो जाता है।

कठोपनिषद्

प्रथम अध्याय द्वितीय वल्ली
(उन्नीसवाँ मन्त्र)

हन्ता चेन्मन्यते हन्तुं हतश्चेन्मन्यते हतम्।
उभौ तौ न विजानीतो नायं हन्ति न हन्यते॥ १९॥


यदि कोई मारनेवाला स्वयं को मारने में समर्थ मानता है और यदि मारा जानेवाला स्वयं को मारा गया मानता है, वे दोनों ही (सत्य को) नहीं जानते। यह आत्मा न मारता है, न मारा जाता है।

कठोपनिषद्

(अठारहवाँ मन्त्र)
न जायते म्रियते वा विपश्चिन्नायं कुतश्चिन्न बभूव कश्चित्।
अजो नित्य: शाश्वतोऽयं पुराणो न हन्यते हन्यमाने शरीरे॥ १८॥
(आत्मा न जन्म लेता है और न मृत्यु को प्राप्त होता है। यह न तो किसी से उत्पन्न हुआ है  इससे कोई उत्पन्न हुआ है। यह अजन्मा, नित्य शाश्वत, पुरातन है। शरीर के नष्ट हो जाने पर इसका नाश नहीं होता।)

कठोपनिषद्

प्रथम अध्याय द्वितीय वल्ली
(सत्रहवाँ मन्त्र)

एतदालम्बनं श्रेष्ठमेतदालम्बनं परम्।
एतदावम्बनं ज्ञात्वा ब्रह्मलोके महीयते॥
१७॥

यह (ॐकार ही) श्रेष्ठ आलम्बन (आश्रय) है, यह आलम्बन सर्वोपरि है, इस आलम्बन को जानकर ब्रह्मलोक में महिमान्वित (आनन्दित) होता है।



कठोपनिषद्

प्रथम अध्याय द्वितीय वल्ली
(सोलहवां मन्त्र)

एतद्धेवाक्षरं ब्रह्म एतद्धेवाक्षरं परम्।
एतद्धेवाक्षरं ज्ञात्वा यो यदिच्छति तस्य तत्॥ १६॥


निश्चयरूप से यह (ॐ) अक्षर (नाश न होने वाला) ही तो ब्रह्म है यह ही परम (सर्वश्रेष्ठ) अक्षर हैइसीलिए इसी अक्षर को जानकर जो जिस विषय की इच्छा करता है उसको वह प्राप्त हो जाता है

कठोपनिषद्

(पन्द्रहवाँ मन्त्र)

सर्वे वेदा यत् पदमामनन्ति तपांसि सर्वाणि च यद् वदन्ति।
यदिच्छन्तो ब्रह्मचर्यं चरन्ति तत्ते पदं संग्रहेण ब्रवीम्योमित्येतत्॥ १५॥

सारे वेद जिस पद का प्रतिपादन करते हैं और सारे तप जिस
लक्ष्य की महिमा का गान करते हैं, जिसकी इच्छा करते हुए (साधकगण) ब्रह्मचर्य के नियमों का पालन करते हैं, उस पद को तुम्हारे (नचिकेता के) लिए संक्षेप में कहता हूँ, ओम् () ऐसा यह अक्षर है।

कठोपनिषद्

(चौदहवां मन्त्र)

अन्यत्र धर्मादन्यत्राधर्मादन्यत्रास्मात्कृताकृतात्।
अन्यत्र भूताच्च भव्याच्च यत्तत्पश्यसि तद्वद॥ १४॥

(नचिकेता ने कहा) धर्म (कर्त्तव्य रूप आचरण) से .पृथक्, अधर्म (अकर्त्तव्य) से भी पृथक्, इस कृत और अकृत (कार्य और कारण) से भिन्न, भूत, भविष्य और वर्तमान (तीनों कालों) से भी अलग, आप जिस उस (परमात्मा) आत्मतत्त्व को जानते हैं, उसे कहें।

कठोपनिषद्

(तेरहवां मन्त्र)

एतच्छ्रुत्वा सम्परिगृह्य मर्त्यः प्रवृह्य धर्म्यमणुमेतमाप्य।
स मोदते मोदनीयं हि लब्ध्वा विवृतं सद्म नचिकेतसं मन्ये॥ १३॥

मनुष्य इस इस धर्ममय (उपदेश) को सुनकर और भली प्रकार से ग्रहण करके (तथा) बारम्बार अभ्यास करके, इस सूक्ष्म आत्मतत्त्व को जानकर उस आनन्दस्वरूप परब्रह्म परमात्मा को प्राप्त कर निश्चय ही आनन्दमग्न हो जाता है। (तुम) नचिकेता के लिए मैं परमधाम का द्वार खुला हुआ मानता हूँ।