याज्ञवल्क्य तथा मैत्रेयी

 उपनिषद काल के एक महान ऋषि याज्ञवल्क्य अपनी अद्भुत आध्यात्मिक प्रज्ञा और शक्ति के लिए प्रसिद्ध थे। वे शुक्ल यजुर्वेद संहिता के ऋषि थे और उन्हें शतपथ ब्राह्मण, योग याज्ञवल्क्य संहिता तथा याज्ञवल्क्य स्मृति के रचयिता माना जाता है। बृहदारण्यक उपनिषद के तीसरे और चौथे अध्याय में याज्ञवल्क्य की महत्वपूर्ण दार्शनिक शिक्षाएं मिलती हैं।


देवरात ऋषि के पुत्र याज्ञवल्क्य एक गृहस्थ के रूप में जीवन यापन कर रहे थे। उनकी दो पत्नियाँ थीं - मैत्रेयी और कात्यायनी। कात्यायनी घर-गृहस्थी की देखभाल करती थीं और पत्नी धर्म का पालन करती थीं। दूसरी ओर, मैत्रेयी को आध्यात्मिक वार्ताओं में रुचि थी और वे अपने पति के साथ बैठकर शिष्यों के साथ उनके संवाद सुनती थीं। इसलिए उन्हें ब्रह्मवादिनी कहा जाता था।


अपने जीवन के अंतिम चरण में याज्ञवल्क्य ने गृहस्थ जीवन त्यागने और वन में एकांतवास का निर्णय लिया। एक दिन उन्होंने मैत्रेयी को बुलाकर कहा, “मैत्रेयी, मैं सब कुछ छोड़कर गृहत्याग करने जा रहा हूँ। यदि तुम चाहो तो मैं तुम्हारे और कात्यायनी के लिए पृथक-पृथक व्यवस्था कर सकता हूँ।”


यह सुनकर मैत्रेयी ने पूछा, “स्वामी, यदि मैं सम्पदा से पूरी धरती भी भर लूँ तो क्या मुझे अमरत्व प्राप्त होगा?”


याज्ञवल्क्य ने उत्तर दिया, “नहीं, प्रिय, इससे तुम्हें अमरत्व प्राप्त नहीं होगा। तुम सम्पन्न व्यक्तियों के समान भोग का जीवन जी सकोगी, परन्तु अमरत्व की आशा नहीं कर सकोगी।”


मैत्रेयी ने भावोद्गार से कहा, “तब मैं उस सम्पत्ति का क्या करूँ जो मुझे अमरत्व नहीं दे सकती?”


याज्ञवल्क्य ने कहा, “तुम मेरी प्रिय हो, और अब तुम और प्रिय हो गई हो।” इसके बाद याज्ञवल्क्य ने उन्हें वास्तविक प्रेम, परम सत्ता की महानता, सृष्टि की प्रकृति, अनन्त ज्ञान और अमरत्व की विधि समझाई।


“प्रिय मैत्रेयी, जान लो कि पत्नी अपने पति को उसके लिए नहीं, बल्कि अपने आत्मा के लिए प्रेम करती है। वह वास्तव में केवल परम सत्ता को ही प्रेम करती है जो दोनों में है, पति और पत्नी में भी। इसी तरह पति भी पत्नी को अपने आत्मा के लिए प्रेम करता है। सभी प्रेम सम्बन्धों में यही सत्य है। प्रिय लगने वाली कोई भी वस्तु उसी एकमात्र आत्मा के कारण प्रिय होती है। इसी आत्मा को देखना, सुनना, उसके बारे में चिंतन करना और ध्यान करना चाहिए। इसका ज्ञान हो जाने पर अन्य सभी का ज्ञान स्वतः हो जाता है।”


“प्रिय मैत्रेयी, जैसे सागर के बिना जल का अस्तित्व नहीं है, त्वचा के बिना स्पर्श का, नासिका के बिना गंध का, जिह्वा के बिना स्वाद का, दृष्टि के बिना रूप का, कर्ण के बिना ध्वनि का, मन के बिना विचार का, श्रवण के बिना प्रज्ञा का, हस्त के बिना कर्म का, चरण के बिना चलने का और वाणी के बिना शास्त्र का कोई अस्तित्व नहीं होता वैसे ही आत्मा के बिना कुछ भी अस्तित्व में नहीं हो सकता।”


“जिस प्रकार जल में लवण विलीन हो जाता है और पुनः पृथक नहीं किया जा सकता, उसी प्रकार पृथक आत्मा शुद्ध चेतना के सागर में विलीन हो जाती है। पृथक्कता देह के साथ आत्मा के तादात्म्य से आती है। जब यह भौतिक तादात्म्य विलीन हो जाता है तब पृथक आत्मा नहीं रहती। यही मैं तुम्हें बताना चाहता था, मेरी प्रिय।”


मैत्रेयी ने उत्तर दिया, “हे धन्य आत्मा, आपने कहा कि कोई पृथक आत्मा नहीं होती। मैं इसे समझ नहीं पाई और भ्रम में हूँ। कृपया इसे स्पष्ट करें।”


याज्ञवल्क्य ने कहा, “प्रिय मैत्रेयी, जो मैंने कहा है उस पर चिंतन करो। तुम्हारा भ्रम दूर हो जाएगा। जब तक पृथक्कता है तब तक व्यक्ति देखता है, सुनता है, गंध की अनुभूति करता है, किसी से बात करता है, किसी वस्तु के बारे में सोचता है और उसे जानता है। परन्तु जब आत्मा की सिद्धि जीवन की अविभाज्य एकता के रूप में हो जाती है तब कौन किसके द्वारा देखा जा सकता है, गंध किसके द्वारा अनुभव की जा सकती है, और किसके द्वारा कौन जाना जा सकता है? हे मैत्रेयी, ज्ञाता को कैसे कभी भी जाना जा सकता है?”


यह सुनकर मैत्रेयी मौन हो गई और उन्हें दी गई शिक्षाओं पर चिंतन करने लगी, और अंततः अनन्त और अमर्त्य में विलीन हो गई।

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