केनोपनिषद का प्रसंग
**संध्या की प्रार्थना और प्रश्नोत्तर सत्र**
संध्या की प्रार्थना समाप्त हो चुकी थी और अब प्रश्नोत्तर का समय था। ऋषि शांत भाव से बैठे थे, जैसे निष्कम्प ज्योति। एक छात्र ने प्रश्न किया:
“मेरे मन को सोचने के लिए कौन प्रेरित करता है?
मेरे शरीर में कौन प्राण डालता है?
किसकी शक्ति से जिह्वा बोलती है?
वह कौन सी अदृश्य शक्ति है जो मेरी आंखों से देखती है और मेरे कानों से सुनती है?”
ये प्रश्न वास्तव में कठिन थे।
**ऋषि का उत्तर**
ऋषि ने स्नेहभरी दृष्टि से शिष्यों की ओर देखा और शांत भाव से बोले:
“प्रिय बालकों! जो शक्ति इन सबको प्रेरित करती है, वह एक ही है और अविभाज्य है। यह उन सबके पीछे और उनसे परे है जो दृश्य जगत में कार्यशील हैं। यह कान का कान है, नेत्र का नेत्र, मन का मन, शब्द का शब्द है और प्राणों का प्राण है। उसे हमारी आँखें नहीं देख सकतीं, शब्द व्यक्त नहीं कर सकते। उसे मन से भी समझा नहीं जा सकता। हम लोग उसे जान नहीं सकते, उसे समझ नहीं सकते, क्योंकि वह ज्ञात और अज्ञात दोनों से भिन्न है। वही हमारी जिह्वा को बोलने के लिए प्रेरित करती है किंतु जिह्वा उसके बारे में कुछ नहीं बोल सकती। वही मन को सोचने के लिए प्रेरित करती है किंतु मन उसके बारे में कुछ सोच नहीं सकता। वह आँखों को देखने की शक्ति देती है पर वह स्वयं आँखों के द्वारा देखी नहीं जा सकती। कान उसी के द्वारा सुनने में समर्थ होते हैं परंतु कानों के द्वारा उसे नहीं सुना जा सकता। वही हमें श्वास लेने की शक्ति प्रदान करती है किंतु उसका श्वास नहीं लिया जा सकता। यह शक्ति वास्तव में आत्मा है और यह आत्मा तुमसे भिन्न नहीं है। जो इस सत्य को जानता और सिद्ध कर लेता है, वह अमरत्व का आनंद प्राप्त कर लेता है।”
**शिष्य की प्रतिक्रिया और ऋषि की शिक्षा**
समय बीतने पर ऋषि पुनः बोले, “यदि तुम समझते हो कि तुम आत्मा को जानते हो, तब वास्तव में तुम उसे नहीं जानते, क्योंकि जो कुछ तुम देखते हो वह सब उसका बाह्य रूप है। इसलिए इस आत्मा पर ध्यान करते रहो।”
विद्यार्थी ने उत्तर दिया, “मैं नहीं समझता कि मैं आत्मा को जानता हूँ और न ही मैं यह कह सकता हूँ कि मैं उसे नहीं जानता।”
ऋषि ने समझाया, “जो कहता है कि ‘मैं जानता हूँ’ वह नहीं जानता। वह कदाचित ही जानता है। किंतु वास्तविक जिज्ञासु जो यह कह कर आरंभ करता है कि ‘मैं नहीं जानता’ वह कालक्रम में जान जाता है। इससे क्रमशः उसका मन प्रकाशित होने लगता है। पूर्ण सिद्धि मिल जाने पर आत्मा सर्वदा चेतना की सभी अवस्थाओं में उपस्थित रहती है। उसकी अंतरात्मा निरंतर बलीवती होती जाती है और निष्कलंक उपस्थिति की सिद्धि की शक्ति द्वारा वह अमरत्व प्राप्त कर लेता है।”
**नीति कथा: देवों और ब्रह्म का प्रसंग**
तत्पश्चात, ऋषि ने एक नीति कथा सुनाई: एक बार देवों ने दानवों को परास्त कर दिया। यद्यपि यह विजय ब्रह्म की शक्ति से मिली थी, देवों ने अहंकार के साथ कहा, “हमने अपनी शक्ति और महिमा से विजय प्राप्त कर ली।” ब्रह्म ने उनके अहंकार को देखा और उनके समक्ष प्रकट हुए। किंतु देवगण, अहंकार और मिथ्याभिमान से अंधे हो चुके थे, उन्हें पहचान नहीं पाए। उन्होंने केवल यह देखा कि उनके समक्ष एक आश्चर्यजनक सत्ता उपस्थित है। वे जानना चाहते थे कि वह सत्ता कौन है। उन्होंने अग्निदेव से उस रहस्यमय सत्ता के बारे में पता करने के लिए कहा।
अग्निदेव उस रहस्यमय सत्ता के निकट गए। सत्ता ने पूछा, “तुम कौन हो?” अग्निदेव ने कहा, “मैं अग्नि का देवता हूँ।” सत्ता ने पूछा, “तुम्हारी शक्ति क्या है?” अग्निदेव ने उत्तर दिया, “मैं पृथ्वी की समस्त वस्तुओं को जला सकता हूँ।” सत्ता ने उसके सामने एक तिनका रखते हुए कहा, “क्या इस तिनके को जला सकते हो?” अग्निदेव ने अपनी पूरी शक्ति लगाई किंतु तिनके को नहीं जला सके। वे देवों के पास लौट गए और अपनी विफलता स्वीकार कर ली।
फिर देवों ने वायुदेव को उस रहस्यमय सत्ता के बारे में जानने के लिए भेजा। वायुदेव भी उस सत्ता के सामने अपनी शक्ति प्रमाणित नहीं कर सके और निराश लौट आए।
अंततः देवों ने देवराज इंद्र से अनुरोध किया। इंद्र के आने पर वह रहस्यमय सत्ता अदृश्य हो गई और उसके स्थान पर एक सुंदर देवी उमा, हिमालय की पुत्री, स्वर्णमयी देवी प्रकट हुईं। इंद्र ने उनसे पूछा, “वह रहस्यमयी सत्ता कौन थी?”
स्वर्णमयी देवी ने उत्तर दिया, “वे स्वयं परम पुरुष ब्रह्म थे जिनसे तुम लोगों की शक्ति और महिमा आती है। उन्होंने ही दानवों पर विजय प्राप्त की।” इंद्र ने यह सत्य अन्य देवों को बताया। तब देवताओं ने अपने दोष का अनुभव किया।
**निष्कर्ष**
ऋषि ने इस कथा का सारांश प्रस्तुत करते हुए कहा, “ब्रह्म का प्रकाश विद्युत की चमक और हमारी आंखों की दृष्टि में चमकता है। ब्रह्म की शक्ति से ही मन सोचता, कामना और संकल्प करता है। यह परात्पर और सर्वव्यापी सत्य का ज्ञान है। सत्य ब्रह्म का शरीर और निवास स्थल है। सभी ज्ञान इसके अंग प्रत्यंग हैं। ध्यान, इंद्रियों और कामना का निग्रह, सबकी निःस्वार्थ सेवा इसके आधार हैं। ब्रह्म को सिद्ध करने वाले सब दोषों से मुक्त हो जाते हैं और परमपद प्राप्त कर लेते हैं।”
शिष्यगण अपने गुरु की शिक्षा से प्रसन्न होकर, आनंद के साथ अपने-अपने आवास में लौट गए, उस विषय पर चिंतन और मनन करने के लिए।
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