कठोपनिषद

18th Mantra of Kathopanishada

(अठारहवां मन्त्र)

त्रिणाचिकेतस्त्रयमेतद्विदित्वा य एवं विद्वांश्चिनुते नाचिकेतम्।
स मृत्यृपाशानृ पुरत: प्रणोद्य शोकातिगो मोदते स्वर्गलोके ॥१८॥

इन तीनों (ईंटों के स्वरुप संख्या और चयन-विधि) को जानकर तीन बार नाचिकेत अग्नि का अनुष्ठान करनेवाला जो भी विद्वान पुरुष नाचिकेत अग्नि का चयन करता है, वह (अपने जीवनकाल मे ही) मृत्यु के पाशों को अपने सामने ही काटकर, शोक को पार कर, स्वर्गलोक में आनन्द का अनुभव करता है।

“That one who knows the three-fold aspects of Nachiketa Agni  and abides by these three things and properly performs the worship of Nachiketa Agni (Fire sacrifice), with three-fold knowledge, throws of the chain of birth and death, goes beyond sorrows and rejoice in heaven.” 

kathopanishada,


17th Mantra of Kathopanishada.
(सत्रहवां मन्त्र)
त्रिणाचिकेतस्त्रिभिरेत्य सन्धिं त्रिकर्मकृत् तरति जन्ममृत्यू।
ब्रह्मजज्ञ। देवमीड्यं विदित्वा निचाय्येमां शानितमत्यन्तमेति ॥१७॥

नाचिकेत अग्नि का तीन बार अनुष्ठान् करनेवाला और तीनों (ऋक्, साम, यजु:वेदों) के साथ सम्बन्ध जोड़कर तीनों कर्म (यज्ञ, दान, तप) करने वाला मनुष्य जन्म और मृत्यु को पार कर लेता है। वह ब्रह्मा से उत्पन्न उपासनीय अग्निदेव को जानकर और उसका चयन करके परम शान्ति को प्राप्त कर लेता है।
That one who performs this Nachiketas fire- sacrifice (the Agni Vidya will now be known by this name) three times, being united with the three (mother, father and teacher), and who fulfills the three-fold duty (study of the Vedas, sacrifice and alms-giving) crosses over birth and death. Knowing this worshipful shining fire, born of Brahman, and realizing Him, then he obtains everlasting peace. 

कठोपनिषद

16th Mantra of Kathopanishada

(सोलहवां मन्त्र)

तमब्रवीत प्रीयमाणो महात्मा वरं तवेहाद्य ददामि भूय:।
तवैव नामा भवितायमग्नि: सृक्ङां चेमामनेकरुपां गृहाण ॥१६॥

महात्मा यमराज प्रसन्न एवं
संतुष्ट होकर उस (नचिकेता) से बोले-अब (मैं) तुम्हें यहां पुन: एक (अतिरिक्त) वर देता हूं। यह अग्नि तुम्हारे ही ('नाचिकेत अग्नि' के) नाम से विख्यात होगी। और इस अनेक रुपोंवाली (रत्नों की ) माला को स्वीकार करो।

The great-souled Yama, being well satisfied, said to him (Nachiketa): “Let this Agni Vidya become known to the world by your name itself. Also take this chain of precious stones (including diamonds) of various colors.”

कठोपनिषद

15th Mantra of Kathopanishada
(पन्द्रहवां मन्त्र)

लोकादिमग्निं तमुवाच तस्मै या इष्टका यावतीर्वा यथा वा।
स चापि तत्प्रत्यवदद्यथोक्तमथास्य मृत्यु: पुनरेवाह तुष्ट:॥१५॥

उस स्वर्ग लोक की साधन रुपा अग्निविद्या को उस (नचिकेता) को कह दिया। (कुण्डनिर्माण इत्यादि में) जो–जो अथवा जितनी-जितनी ईंटें (आवश्यक होती हैं) अथवा जिस प्रकार उनका चयनकिया जाता है और उस (नचिकेता) ने भी उसे जैसा कहा गया था, पुन: सुना दिया। इसके बाद यमराज उस पर संतुष्ट होकर पुन: बोले।

Yama then told Nachiketa that fire sacrifices (Agni Vidya), the source of the universes, what bricks are required for the altar, how many and how they are to be placed, and Nachiketa repeated all as explained. Then Yama (Death), being pleased with him, and again spoke.

कठोपनिषद

14th Mantra of Kathopanishada.
(चौदहवां मन्त्र)

प्र ते ब्रवीमि तदु मे निवोध स्वर्ग्यमग्निं नचिकेत: प्रजानन्।
अनन्तलोकाप्तिमथो प्रतिष्ठां विद्धि त्वमेतं निहितं गुहायाम् ॥१४॥

(
यमराज ने कहा) हे नचिकेता ! स्वर्गप्राप्ति की साधनरुप अग्निविद्या को भली प्रकार जाननेवाला मैं तुम्हें इसे बता रहा हूं। (तुम) उसे भली प्रकार मुझसे जान लो। तुम इस (विद्या) को
अनंत लोक की प्राप्ति करानेवाली, उसकी आधाररुपा और बुद्धिरुपी गुहा मे स्थित जानो।

(Yama replied :) I know the fire (Agni) that leads to heaven and shall explain it to you. Listen to me. Know it (Agni Vidya), O Nachiketa, which he reached the infinite universe, It is hidden in the heart of all beings.