कठोपनिषद

3rd Mantra 
(तृतीय मन्त्र)

स त्वं प्रियान् प्रियरूपांश्च कामानभिध्यायन्नचिकेतोऽत्यस्त्राक्षीः।
नैतां सृडकां वित्तमयीमवाप्तो यस्यां मज्जन्ति बहवो मनुष्याः ॥३॥
(यमराज ने कहा) हे नचिकेता ! वह तुम हो कि जिसने प्रिय प्रतीत होने वाले और प्रिय रूपवाले भोगों को सोच-समझकर छोड़ दिया, इस बहुमूल्य रत्नमाला को भी स्वीकार नहीं किया जिस (के प्रलोभन) में अधिकांश लोग फँस जाते हैं।
(Yama said) "O Nachiketa! You wisely renounced what was appear as pleasurable or what was of the form of pleasure, you have not even accepted this necklace with valuable pearls, to which majority of the people greedily attached to." 

कठोपनिषद

2nd Mantra
(द्वितीय मन्त्र)

श्रेयश्च प्रेयश्च मनुष्यमेतस्तौ सम्परीत्य विविनक्ति धीरः।
श्रेयो हि धीरोऽभिप्रेयसो वृणीते प्रेयो मन्दो योगक्षेमाद् वृणीते ॥२॥

श्रेय और प्रेय (दोनों) मनुष्य को प्राप्त होते हैं। श्रेष्ठ बुद्धि सम्पन्न पुरुष उन पर भली प्रकार विचार करके उन्हें पृथक्-पृथक् समझता है। श्रेष्ठबुद्धिवाला पुरुष प्रेय की अपेक्षा श्रेय का ही वरण करता है। मन्द बुद्धि वाला मनुष्य लौकिक योगक्षेम (की इच्छा) से प्रेय का ग्रहण करता है।

The good and the pleasurable, both reach to man. The wise man contemplates on both and understands them separately. The wise man chooses the good, instead of pleasurable, while the unwise (foolish) man chooses pleasurable only for the sake of worldly well-being.

कठोपनिषद्

प्रथम अध्याय द्वितीय वल्ली
First Chapter (Second Valli)
1st Mantra


(प्रथम मन्त्र)

अन्यच्छेयोऽन्यदुतैव प्रेयस्ते उभे नानार्भे पुरुषं सिनीतः।
तयोः श्रेय आददानस्य साधु भवति हीयतेऽर्थाद्य उ प्रेयो वृणीते ॥१॥

(श्रेय) कल्याण का मार्ग अलग
है और (प्रेय) प्रिय लगाने वाले भोगों का मार्ग अलग ही है वे दोनों भिन्न-भिन्न अर्थ में मनुष्य को बाँधते हैं उन दोनों में से श्रेय (कल्याण के मार्ग को) ग्रहण करने वाले पुरुष का कल्याण होता है और जो प्रेय को ग्रहण करता है वह उद्देश्य (यथार्थ) से गिर जाता है।


The path of The Good (श्रेय) is different and the path of pleasure (प्रेय) is different. These two, having different ends, bind man in different manner. The one who choose the path of The Good among these two, reach the Good (The highest end) and the one who select the path of pleasure will fall down (will not reach the end).

Kathopanishad

‎29th Mantra of katopanishada.
(कठोपनिषद का उन्तीसवाँ मन्त्र)
यस्मिन्निदं विचिकित्सन्ति मृत्यो यत्साम्पराये महति ब्रूहि नस्तत्।
योऽयं वरो गूढमनुप्रविष्टो नान्यं तस्मान्नचिकेता वृणीते ॥२९॥

(नचिकेता ने कहा) हे यमराज (
मृत्यु) ! जिस विषय में यह (कि मरने के बाद आत्मा रहता या नहीं) सन्देह होता है,जो महान् परलोक-विज्ञान में है,उसको हमारे लिए कहो। जो यह गूढ रहस्यमय (सूक्ष्म) वर मेरे मन में समाया हुआ है उससे भिन्न अन्य (वर को) नचिकेता नहीं माँगता।

(Nachiketa said :) ”O Death! Regarding which there is doubted that what's in the afterlife (concerning the Soul), that sure knowledge of the other world is that which I want to know. Nachiketa asks for no other boon.”

कठोपनिषद

28th Mantra of Kathopanishada.
(कठोपनिषद का अट्ठाइसवां मन्त्र)
अजीर्यताममृतानामुपेत्य जीर्यन् मर्त्यः व्कधःस्थः प्रजानन्।
अभिध्यायन् वर्णरतिप्रमोदानदीर्घे जीविते को रमेत ॥२८॥
(नचिकेता ने कहा) (बुढ़ापे से) जीर्ण होने वाला मरणधर्मा मनुष्य,जीर्णता को प्राप्त न होनेवाले देवताओं (मुक्त पुरुषों) के सानिध्य में,आत्मविद्या को प्राप्त होकर,आत्मतत्त्व की महिमा को जानकर पृथ्वी के अधोभाग में स्थित होकर,सुन्दर वर्ण और स्त्री प्रसंग से हुए भौतिक सुखों (की व्यर्थता) का विचार करता हुआ कौन अतिदीर्घ काल तक जीवित रहने में रुचि लेगा?
(Nachiketa said :) “Which mortal, who under goes decay, having approached the undecaying immortal one, and having shall consider the pleasures produced by song and sport (beauty and love), would delight in long life?”