कठोपनिषद्


द्वितीय अध्याय 
द्वितीय वल्ली


(द्वितीय मन्त्र)


हंसः शुचिषद् वसुरन्तरिक्षसद्धोता वेदिषदतिथिर्दुरोणसत्।
नृषद् वरसदृतसद् व्योमसदब्जा गोजा ऋतजा अद्रिजा ऋतं बृहत्।। २।।

(पवित्र ज्योति (विशुद्ध परमधाम) में आसीन स्वयंप्रकाश पुरुषोत्तम परमात्मा (हंस), अन्तरिक्ष को व्याप्त करनेवाला देवता वसु है। यज्ञवेदी पर स्थित अग्नि तथा अग्नि में आहुति देनेवाला 'होता' है, घरों में पधारनेवाला अतिथि है, मनुष्यों में (प्राणरूप से) स्थित है तथा वरणीय श्रेष्ठ (देवों) में विराजमान है, ऋत (सत्य अथवा यज्ञ) में विद्यमान है, आकाश में व्याप्त है, जल में मत्स्य आदि के रूप में उत्पन्न है, पृथ्वी पर (चतुर्विध भूतग्राम के रूप में) विद्यमान है, सत्य (सत्कर्मों) के फल के रूप में प्रकट है, पर्वतों में अनेक प्रकार से (नदियों आदि के रूप में) प्रकट है, वही महान् सत्य (ब्रह्म) है।)


कठोपनिषद्


द्वितीय अध्याय 
द्वितीय वल्ली
(प्रथम  मन्त्र)


पुरमेकादशद्वारमजस्यावक्रचेतस:
अनुष्ठाय न शोचति विमुक्तिश्च विमुच्यते।। एतद् वै तत्।। १।।

(सरल (निर्विकार) अज (जन्मरहित) परमात्मा का ग्यारह द्वारवाला पुर (निवासस्थान) (मनुष्य-देह) है। परमात्मा का अनुष्ठान (ध्यान आदि साधना) करके मनुष्य (दुःख, भय और चिन्ता से) मुक्त होकर, विमुक्त हो जाता है। यह ही तो वह है।)

कठोपनिषद्


द्वितीय अध्याय 
प्रथम वल्ली
(पन्द्रहवाँ  मन्त्र)


यथोदकं शुद्धेशुद्धमासिक्तं तादृगेव भवति।
एवं मुनेर्विजानत आत्मा भवति गौतम।। १५।। 

(हे गौतमवंशीय (नचिकेता) ! जिस प्रकार शुद्ध जल में बरसा हुआ जल वैसा ही शुद्ध हो जाता है, उसी प्रकार विवेक शील (मुनि) की आत्मा हो जाती है।)

कठोपनिषद्


द्वितीय अध्याय 
प्रथम वल्ली
(चौदहवाँ  मन्त्र)


यथोदकं दुर्गे वृष्टं पर्वतेषु विधावति।   
एवं धर्मान् पृथक् पश्यंस्तानेवानुविधावति।। १४।।

(जिस प्रकार दुर्ग (उच्च शिखर) पर बरसा हुआ जल पर्वतों में इधर-उधर दौड़ता है (बह जाता है), उसी प्रकार शरीरभेदों (धर्म-स्वभावों) को पृथक्-पृथक् देखनेवाला मनुष्य उन्हीं के पीछे दौड़ता है (अनुसरण करता है)।

कठोपनिषद्


द्वितीय अध्याय 
प्रथम वल्ली
(बारहवाँ  मन्त्र)


अङ्गुष्ठमात्र: पुरुषो मध्य आत्मनि तिष्ठति।
ईशानो भूतभव्यस्य न ततो विजुगुप्सते।। एतद् वै तत्।। १२ ।।    

अङ्गुष्ठमात्र (अँगूठे के मापवाला) पुरुष देह के मध्यभाग (हृदयाकाश) में स्थित रहता है। वह भूत और भविष्यत् (काल) का शासन करनेवाला है। उसके जाने लेनेके पश्चात् मनुष्य घृणा, भय, आदि नहीं करता। यह ही तो वह है।

(तेरहवाँ  मन्त्र)


अङ्गुष्ठमात्रः पुरुषो ज्योतिरिवाधूमकः।
ईशानो भूतभव्यस्य स एवाद्य स उ श्वः।। एतद् वै तत्।। १३।।

अङ्गुष्ठमात्र (अँगूठे के मापवाला) पुरुष धूम रहित ज्योति की भाँति है। भूत और भविष्यत् का (अर्थात् काल का) शासक है। वह ही आज है और वह ही कल है (सनातन है)। यही है वह।