कठोपनिषद्


प्रथम अध्याय
तृतीय वल्ली


(सातवाँ मन्त्र)


यस्तवविज्ञानवान् भवत्यमनस्कः सदाऽशुचिः।     
न स तत्पदमाप्नोति संसारं चाधिगच्छति ॥७॥

(जो भी सदा विवेकहीन, असंयतमन, अपवित्र होता है वह उस परमपद को प्राप्त नहीं करता तथा संसारचक्र को ही प्राप्त होता है।)

(आठवाँ मन्त्र)


यस्तु विज्ञानवान् भवति समनस्कः सदासशुचिः।     
स तु तत्पदमाप्नोति यस्माद् भूयो न जायते ॥८॥

(और जो विवेकशील संयतमन, पवित्र होता है वह तो उस परमपद को प्राप्त कर लेता है जहाँ से (वह) पुनः (लौटकर) उत्पन्न नहीं होता।)

(नवाँ मन्त्र)


विज्ञानसारथिर्यस्तु मनःप्रग्रहवान् नरः।     
सोऽध्वनः पारमाप्नोति तद्विष्णोः परमं पदम् ॥९॥

(जो मनुष्य विवेकशील बुद्धिरूप सारथि से युक्त और मनरूप प्रग्रह (लगाम) को वश में रखनेवाला है वह (संसार) मार्ग पार करके विष्णु के उस (प्रसिद्ध) परम पद को प्राप्त कर लेता है।)


कठोपनिषद्


प्रथम अध्याय
तृतीय वल्ली


(पांचवां मन्त्र)
यस्त्वविज्ञानवान् भवत्ययुक्तेन मनसा सदा।
तस्येन्द्रियाण्यवश्यानि दुष्टाश्वा इव सारथेः ॥५॥

(जो सदा अविवेकी बुद्धिवाला और अनियंत्रित मनवाला होता है, उसकी इन्द्रियाँ सारथि के दुष्ट घोड़ों की भाँति वश में नहीं रहतीं हैं।)

(छठा मन्त्र)
यस्तु विज्ञानवान् भवति युक्तेन मनसा सदा।
तस्येन्द्रियाणि वश्यानि सदश्वा इव सारथेः ॥६॥

(और जो सदा विवेकशील बुद्धिवाला और नियंत्रित मनवाला होता है उसकी इन्द्रियाँ सारथि के अच्छे घोड़ों की भाँति वश में रहतीं हैं।)

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प्रथम अध्याय
तृतीय वल्ली


(तृतीय मन्त्र)


आत्मानं रथिनं विद्धि शरीरं रथमेव तु।
बुद्धिं तु सारथिं विद्धि मनः प्रग्रहमेव च ॥३॥

जीवात्मा को रथ का स्वामी समझो और शरीर को ही रथ (समझो) और बुद्धि को सारथि (रथ चलानेवाला) समझो और मन को ही लगाम समझो।

(चतुर्थ मन्त्र)


इन्द्रियाणि हयानाहुर्विषयांस्तेषु गोचरान्।
आत्मेन्द्रियमनोयक्तं भोक्तेत्याहुर्मनीषिणः ॥४॥

मनीषीजन इन्द्रियों को घोड़े कहते हैं विषयों (भोग के पदार्थों) को उनके गोचर (विचरने का मार्ग) कहते हैं शरीर, इन्द्रिय और मन से युक्त (जीवात्मा) को भोक्ता है, ऐसा कहते हैं।

कठोपनिषद्


प्रथम अध्याय
तृतीय वल्ली 


(द्वितीय मन्त्र)


यः सेतुरीजानानामक्षरं ब्रह्म यत्परम्।    
अभयं तितीर्षतां पारं नाचिकेतं शकेमहि ॥२॥

[(यमराज परमात्मा से प्रार्थना करते हैं कि हे परमात्मन् !)  जो यज्ञ करने वालों के लिए सेतु हैं (उस) नाचिकेत अग्नि (तथा) जो संसार-सागर को पार करने की इच्छावालों के लिए अभयपद हैं (उस) अविनाशी परब्रह्म को हम जानने में समर्थ हों।]

कठोपनिषद्


प्रथम अध्याय
तृतीय वल्ली 
(प्रथम मन्त्र)

ऋतं पिबन्तौ सुकृतस्य लोके गुहां प्रविष्टौ परमें परार्धे।
छायातपौ ब्रह्मविदो वदन्ति पज्चाग्नयो ये च त्रिणाचिकेताः ॥१॥

(पुण्यों (शुभकर्मों) के फलस्वरूप लोक में (मानवदेह के भीतर) श्रेष्ठ स्थल (हृदयप्रदेश) में परब्रह्म के परमोच्च निवास (हृदय की गुहा) में स्थित ऋत (सत्य का) पान करनेवाले दो (जीवात्मा और परमात्मा) छाया और आतप (प्रकाश, धूप) के सदृश रहते हैं ब्रह्मवेत्ता ऐसा करते हैं और तीन बार नाचिकेत अग्नि का चयन करनेवाले तथा पज्चाग्नि यज्ञ करने वाले (कर्मकाण्डी) गृहस्थजन भी ऐसा ही कहते हैं।)