कठोपनिषद्


द्वितीय अध्याय 
तृतीय वल्ली
(पाँचवाँ मन्त्र)


यथाऽऽदर्शे तथाऽऽत्मनि यथा स्वप्ने तथा पितृलोके।    
यथाप्सु परीव ददृशे तथा गन्धर्वलोके छायातपयोरिव ब्रह्मलोके।।५।।

दर्पण में जैसे (प्रतिविम्ब दीखता है), वैसे शुद्ध अन्त: करण में ब्रह्म (दीखता है), जैसे स्वप्न में, वैसे पितृलोक में, जैसे जल में, वैसे गन्धर्वलोक में (परमात्मा) दीखता-सा है। ब्रह्मलोक में छाया और आतप (धूप) की भांति (पृथक-पृथक दीखते हैं।)

कठोपनिषद्


द्वितीय अध्याय 
तृतीय वल्ली
(चतुर्थ मन्त्र)


इह चेदशकद् बोद्धुं प्राक् शरीरस्य  विस्त्रस:।    
तत: सर्गेषु लोकेषु शरीरत्वाय कल्पते।। ४।।

(यदि शरीर के छूटने (मृत्यु) से पूर्व, इस शरीर में ही (आत्मा) को जानने में समर्थ हो सका (तो ही उचित है) अन्यथा सर्गों (कल्पों) तक लोकों में शरीरभाव को प्राप्त (होने को विवश) होता रहेगा।)

कठोपनिषद्


द्वितीय अध्याय 
तृतीय वल्ली
(तृतीय मन्त्र)


भयादस्याग्निस्तपति भयात् तपति सूर्य:।    
भयादिन्द्रश्च वायुश्च मृत्युर्धावति पञ्चम:।।३।। 

इसके भय से अग्नि तपता है, इसके भय से सूर्य तपता है , इसके भय से इन्द्र, वायु और पाँचवाँ मृत्यु (देवता) दौड़ते हैं।




कठोपनिषद्


द्वितीय अध्याय 
तृतीय वल्ली
(द्वितीय मन्त्र)


यदिदं किं च जगत्सर्वं प्राण एजति नि: सृतम्।     
महद्भयं वज्रमुद्यतं य एतद्विदुरमृतास्ते भवन्ति।।२।।

यह जो कुछ भी (परमात्मा से) निकला हुआ सारा जगत् है, प्राण में चेष्टा करता है। इस उठे हुए वज्र (के समान) महान् भयरुप (शक्तिशाली परमेश्वर) को जो जानते हैं वे अमृत हो जाते हैं।

कठोपनिषद्


उपनिषद भारतीय आध्यात्मिक दर्शन के प्रमुख स्त्रोत हैं। जहाँ हमें परमेश्वर, परमात्मा (ब्रह्म) और आत्मा के स्वभाव और सम्बन्ध का दार्शनिक वर्णन प्राप्त होता है । यही ब्रह्मविद्या हैं। इसके नित्य अभ्यास से मुमुक्षु जनों की अविद्या, नष्ट हो जाती है और ब्रह्म की प्राप्ति हो जाती है। कठोपनिषद कृष्ण यजुर्वेद की कठशाखा शाखा से सम्बन्धित है। दो अध्यायों से युक्त इस उपनिषद के प्रत्येक अध्याय में तीन-तीन वल्लियां हैं। सदगुरुदेव की महती कृपा और उनकी सूक्ष्म सत्ता के अप्रतिम प्रभाव से हमने प्रथम अध्याय की तीनों वल्लियों और द्वितीय अध्याय की दो वल्लियों में उद्धृत मन्त्रों का भाव समझा। अब हम द्वितीय अध्याय की तृतीय वल्ली के मन्त्रों का भाव ग्रहण करेंगे। इस वल्ली में यमराज ने ब्रह्म की उपमा पीपल के उस वृक्ष से की है, जो इस ब्रह्माण्ड के मध्य उलटा लटका हुआ है। जिसकी जड़े ऊपर की ओर हैं और शाखाएं नीचे की ओर लटकी हुई हैं। यह सृष्टि का सनातन वृक्ष है जो विशुद्ध, अविनाशी और निर्विकल्प ब्रह्म का ही रूप है।

कठोपनिषद्
द्वितीय अध्याय 
तृतीय वल्ली
(प्रथम मन्त्र)


ऊर्ध्वमूलोऽवाक्शाखः एषोऽश्वत्थः सनातनः।
तदेव शुक्रं तद् ब्रह्म तदेवामृतमुच्यते।
तस्मिँल्लोकाः श्रिताः सर्वे तदु नात्येति कश्चन।। एतद् वै तत्।।१।।

ऊपर की ओर मूलवाला और नीचे की ओर शाखावाला यह सनातन अश्वत्थ (पीपल का)वृक्ष है। वह ही विशुद्ध तत्व है वह (ही) ब्रह्म है। समस्त लोक उसके आश्रित है कोई भी उसका उल्लघंन नही कर सकता। यही तो वह है। (जिसे तुम जानना चाहते हो।)