द्वितीय अध्याय
तृतीय वल्ली
(चौदहवाँ मन्त्र)
यदा सर्वे प्रमुच्यन्ते कामायेऽस्यहृदिश्रिताः।
अथ मर्त्योऽमृतो भवत्यत्र ब्रह्म समश्नुते ॥१४॥
(जब इस (मनुष्य) के हृदय में स्थित सब कामनाएँ छूट (मिट) जाती हैं, तब मरणधर्मा मनुष्य अमृत (स्वरुप) हो जाता है। (वह) यहीं ब्रह्म का रसास्वादन कर लेता है।)
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