कठोपनिषद्


द्वितीय अध्याय 
द्वितीय वल्ली


(नवाँ मन्त्र)
अग्निर्यथैको भुवनं प्रविष्टो रूपं रूपं प्रतिरूपो बभूव।
एकस्तथा सर्वभूतान्तरात्मा रूपं रूपं प्रतिरूपो बहिश्च।। ९।।

(जिस प्रकार सारे ब्रह्माण्ड में प्रविष्ट (विद्यमान) एक ही अग्नि (तेज) विभिन्न रूपों में उनके प्रतिरूप अथवा अनुरूप (समरूप) होता है उसी प्रकार समस्त प्राणियों का अन्तरात्मा एक ही ब्रह्म विभिन्न रूपों में उन्ही के प्रतिरूप होता है तथा उनके बाहर भी होता है।)

(दसवाँ मन्त्र)
वायुर्यथैको भुवनं प्रविष्टो रूपं रूपं प्रतिरूपो बभूव।
एकस्तथा सर्वभूतान्तरात्मा रूपं रूपं प्रतिरूपो बहिश्च।। १०।।

(जिस प्रकार सारे ब्रह्माण्ड में प्रविष्ट (विद्यमान) एक ही वायु विभिन्न रूपों में उनके प्रतिरूप अथवा अनुरूप (समरूप) होता है उसी प्रकार समस्त प्राणियों का अन्तरात्मा एक ही ब्रह्म विभिन्न रूपों में उन्ही के प्रतिरूप होता है तथा उनके बाहर भी होता है।)

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें