कठोपनिषद्

द्वितीय अध्याय 
द्वितीय वल्ली
(तेरहवाँ मन्त्र)


नित्यो नित्यानां चेतनश्चेतननामेको बहूनां यो विदधाति कामान्।
तमामत्मस्थं येऽनुपश्यन्ति धीरास्तेषां शान्तिः शाश्वती नेतरेषाम्।।१३।।

(जो नित्यों का भी नित्य, चेतनों का भी चेतन है। जो एक ही, सबकी कामनाओं को पूर्ण (जीवों के कर्मफलभोगों का विधान) करता है। जो धीर पुरुष (ज्ञानी), उस आत्मस्थित (परमात्मा) को अपने भीतर ही निरंतर देखते हैं; उन्हीं को शाश्वत (अखण्ड) शांति की प्राप्ति होती है, दूसरों को नहीं।)

कठोपनिषद्


द्वितीय अध्याय 
द्वितीय वल्ली
(बारहवाँ मन्त्र)


एको वशी सर्वभूतान्तरात्मा एकं रूपं बहुधा यः करोति।
तमात्मस्थं येऽनुपश्यन्ति धीरास्तेषां सुखं शाश्वतं नेतरेषाम्।। १२।।

एक (अद्वितीय) परमात्मा, जो सब प्राणियो का अन्तरात्मा तथा सबको वश मे रखनेवाला है, (वह) एक (ही) रूप को बहुत प्रकार से बना लेता है। ज्ञानी पुरूष उसे निरंतर अपने भीतर संस्थित देखते हैं उनको शाश्वत (अखण्ड) सुख प्राप्त होता है अन्य (दूसरों को) नहीं।

कठोपनिषद्


द्वितीय अध्याय 
द्वितीय वल्ली
(ग्यारहवाँ मन्त्र)


सूर्यो यथा सर्वलोकस्य चक्षुर्न लिप्यते चाक्षुषैर्बाह्रादोषैः।
एकस्तथा सर्वभूतान्तरात्मा न लिप्यते लोकदुःखेन ब्राह्मः।। ११।।

(जिस प्रकार समस्त लोकों का चक्षु (प्रकाशक) सूर्य (मनुष्यों के) नेत्रों में होने वाले बाह्य दोषों से लिप्त नही होता, उसी प्रकार सब प्राणियों का अन्तरात्मा, एक परमात्मा लोकों के दुखों से लिप्त नही होता। वह (तो) सबसे परे है।)

कठोपनिषद्


द्वितीय अध्याय 
द्वितीय वल्ली


(नवाँ मन्त्र)
अग्निर्यथैको भुवनं प्रविष्टो रूपं रूपं प्रतिरूपो बभूव।
एकस्तथा सर्वभूतान्तरात्मा रूपं रूपं प्रतिरूपो बहिश्च।। ९।।

(जिस प्रकार सारे ब्रह्माण्ड में प्रविष्ट (विद्यमान) एक ही अग्नि (तेज) विभिन्न रूपों में उनके प्रतिरूप अथवा अनुरूप (समरूप) होता है उसी प्रकार समस्त प्राणियों का अन्तरात्मा एक ही ब्रह्म विभिन्न रूपों में उन्ही के प्रतिरूप होता है तथा उनके बाहर भी होता है।)

(दसवाँ मन्त्र)
वायुर्यथैको भुवनं प्रविष्टो रूपं रूपं प्रतिरूपो बभूव।
एकस्तथा सर्वभूतान्तरात्मा रूपं रूपं प्रतिरूपो बहिश्च।। १०।।

(जिस प्रकार सारे ब्रह्माण्ड में प्रविष्ट (विद्यमान) एक ही वायु विभिन्न रूपों में उनके प्रतिरूप अथवा अनुरूप (समरूप) होता है उसी प्रकार समस्त प्राणियों का अन्तरात्मा एक ही ब्रह्म विभिन्न रूपों में उन्ही के प्रतिरूप होता है तथा उनके बाहर भी होता है।)

कठोपनिषद्


द्वितीय अध्याय 
द्वितीय वल्ली
(आठवाँ मन्त्र)


य एष सुप्मेषु जागर्ति कामं कामं पुरूषो निर्मिमाणः।
तदेव शुक्रं तद् ब्रह्म तदेवामृतमुच्यते।
तस्मिल्लोकाः श्रिताः सर्वे तदु नात्योति कश्चन।। एतद् वै तत्।। ८।। 

(जो यह काम्य (कर्मानुसार) भोगो का निर्माण करने वाला परमपुरूष (परमात्मा) है सबके सो जाने पर (प्रलयकाल मे) भी जागता रहता है, वही विशुद्ध (शुभ्र ज्योति स्वरूप) तत्व है। वही ब्रह्म है। वही अमृत (अविनाशी) कहा जाता है। उसीमे सारे लोक  आश्रित  है, कोई भी उसका अतिक्रमण नही करता है। यही तो वह है (जिसे तुम (नचिकेता) ने पूछा है।)