कठोपनिषद्


द्वितीय अध्याय 
द्वितीय वल्ली
(आठवाँ मन्त्र)


य एष सुप्मेषु जागर्ति कामं कामं पुरूषो निर्मिमाणः।
तदेव शुक्रं तद् ब्रह्म तदेवामृतमुच्यते।
तस्मिल्लोकाः श्रिताः सर्वे तदु नात्योति कश्चन।। एतद् वै तत्।। ८।। 

(जो यह काम्य (कर्मानुसार) भोगो का निर्माण करने वाला परमपुरूष (परमात्मा) है सबके सो जाने पर (प्रलयकाल मे) भी जागता रहता है, वही विशुद्ध (शुभ्र ज्योति स्वरूप) तत्व है। वही ब्रह्म है। वही अमृत (अविनाशी) कहा जाता है। उसीमे सारे लोक  आश्रित  है, कोई भी उसका अतिक्रमण नही करता है। यही तो वह है (जिसे तुम (नचिकेता) ने पूछा है।)

कठोपनिषद्


द्वितीय अध्याय 
द्वितीय वल्ली
(सातवाँ मन्त्र)


योनिमन्ये प्रपधन्ते शरीरत्वाय देहिनः।
स्थाणुमन्येऽनुसंयन्ति यथाकर्म यथाश्रुतम्।।७।।

(जैसा जिसका कर्म तथा जैसा जिसका श्रवण होता है (उसी के अनुसार) जीवात्मा शरीर धारण के लिए अनेक योनियो को प्राप्त होते है, अनेक स्थाणुभाव का अनुसरण करते है।)


कठोपनिषद्


द्वितीय अध्याय 
द्वितीय वल्ली
(पांचवाँ मन्त्र)
न प्राणेन नापानेन मर्त्यो जीवति कश्चन।    
इतरेण तु जीवन्ति यस्मिन्नेतावुपाश्रितौ।। ५।।

(कोई भी मरणशील प्राणी न प्राण से, न अपान से जीवित रहता है, किन्तु जिसमें ये दोनों (पञ्च प्राण) उपाश्रित हैं, उस अन्य से ही (प्राणी) जीवित रहते हैं।)

(छठा मन्त्र)
हन्तं त इदं प्रवक्ष्यामि गुह्यं ब्रह्म सनातनम्।    
यथा च मरणं प्राप्य आत्मा भवति गौतम।। ६।।

(हे गौतमवंशीय (नचिकेता) ! (वह) रहस्यमय सनातन ब्रह्म और जीवात्मा जैसे मरण को प्राप्त होता है, यह तुम्हें निश्चय ही बताऊँगा।)

कठोपनिषद्


द्वितीय अध्याय 
द्वितीय वल्ली
(चतुर्थ मन्त्र)


अस्य विस्त्रंसमानस्य शरीरस्थस्य देहिन:।
देहाद्विमुच्यमानस्य किमत्र परिशिष्यते।। एतद् वै तत्।। ४।।

(इस शरीर में स्थित, शरीर से चले जानेवाले जीवात्मा के शरीर से निकल जाने पर यहाँ (इस शरीर में) क्या शेष रहता है ? यह ही वह (ब्रह्म)  है।)

कठोपनिषद्


द्वितीय अध्याय 
द्वितीय वल्ली
(तृतीय  मन्त्र)


ऊर्ध्वं प्राणमुन्नयत्यपानं प्रत्यगस्यति।
मध्ये वामनमासीनं विश्वेदेवा उपासते।। ३।।

(जो) प्राण को ऊपर की ओर उठाता है, अपान वायु को नीचे की ओर ढकेलता है, शरीर के मध्यभाग (हृदय) में सूक्ष्म रूप से आसीन (स्थित) है, (उस) सूक्ष्म (सर्वश्रेष्ठ) परमात्मा की, सभी देवता उपासना करते हैं।