द्वितीय अध्याय
प्रथम वल्ली
(द्वितीय मन्त्र)
पराच: कामाननुयन्ति बालास्ते मृत्योर्यन्ति वितस्य पाशम्।
अथ धीरा अमृतत्वं विदित्वा ध्रुवमध्रुवेष्विह न प्रार्थयन्ते ।।२।।
(अविवेकशील जन बाह्य भोगों का अनुसरण करते हैं। वे सर्वत्र विस्तीर्ण मृत्यु के बन्धन को प्राप्त करते हैं, किन्तु धीर (विवेकशील) पुरुष ध्रुव (नित्य, शाश्वत) अमृतपद को जानकर इस जगत् में अध्रुव (अनित्य, नश्वर) भोगों में से किसी (भोग) की भी कामना नहीं करते।)