कठोपनिषद्


प्रथम अध्याय 
तृतीय वल्ली

(सत्रहवाँ मन्त्र) 
य इमं परमं गुह्यं श्रावयेद्    ब्रह्मसंसदि।
प्रयत: श्राद्धकाले वा तदानन्त्याय क्लपते।
तदानन्त्याय क्लपते ॥१७॥

(जो (मनुष्य) शुद्ध होकर इस परमगुह्य प्रसंग को ज्ञानी जन की सभा में सुनाता है अथवा श्राद्धकाल में सुनाता है, वह अनन्त होने में समर्थ हो जाता है, वह अनन्त होने में समर्थ हो जाता है।)

कठोपनिषद्


प्रथम अध्याय 
तृतीय वल्ली

(सोलहवाँ मन्त्र) 
नाचिकेतमुपाख्यानं     मृत्युप्रोक्तं सनातनम्। 
उक्त्वा श्रुत्वा च मेधावी ब्रह्मलोके महीयते॥१६॥

(बुद्धिमान पुरुष मृत्यु के देवता से कहे हुए नचिकेता-संबंधी उपाख्यान को कहकर और सुनकर ब्रह्मलोक में महिमान्वित होता है।)

कठोपनिषद्


प्रथम अध्याय 
तृतीय वल्ली   


(पन्द्रहवाँ मन्त्र)  
अशब्दमस्पर्शमरुपमव्ययं  तथाऽरसं नित्यमगन्धवच्च यत्।
अनाद्यनन्तं महत: परं ध्रुवं निचाय्य तन्मृत्युमुखात् प्रमुच्यते ॥१५॥

(जो शब्दरहित, स्पर्शरहित, रुपरहित, रसरहित और गन्धरहित है तथा अविनाशी, नित्य, अनादि, अनन्त है, (जो)  महत्तत्व (समष्टि बुद्धि अथवा अवयक्त प्रकृति) से भी परे है, जो ध्रुव तत्त्व है, उस परब्रह्म को जानकर (मनुष्य) मृत्यु के मुख से मुक्तहो जाता है।)

कठोपनिषद्


प्रथम अध्याय 
तृतीय वल्ली

(चौदहवाँ मन्त्र)
उत्तिष्ठत  जाग्रत प्राप्य वरान्निबोधत।
क्षुरस्य धारा निशिता दुरत्यया दुर्गं पथस्तत्कवयो वदन्ति ॥१४॥

(हे मनुष्यो) उठो, जागो (सचेत हो जाओ) । श्रेष्ठ (ज्ञानी) पुरुषों को प्राप्त (उनके पास जा) कर के ज्ञान प्राप्त करो । त्रिकालदर्शी (ज्ञानी पुरुष) उस पथ (तत्त्वज्ञान के मार्ग) को छुरे की तीक्ष्ण (लॉँघने में कठिन) धारा के (के सदृश)  दुर्गम (घोर कठिन) कहते हैं।

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प्रथम अध्याय 
तृतीय वल्ली


(तेरहवाँ मंत्र )
यच्छे द्वाङ्मनसी प्राज्ञस्तद्यच्छेज्ज्ञान आत्मनि।
ज्ञानमात्मनि महति नियच्छेत्तद्यच्छान्त आत्मनि ॥१३॥

(ज्ञानी (बुद्धिमान्) पुरुष (को चाहिए कि वह) वाणी आदि इन्द्रियों को मन में संयत कर दे, उस मन को प्रकाशमय बुद्धि में विलीन कर दे, ज्ञानस्वरूप बुद्धि को महत् तत्त्व (अपरब्रह्म) में निरुद्ध कर दे, उस (समष्टि बुद्धि) को शान्त (निर्विकार, शुद्ध, बुद्ध) आत्मा में विलीन कर दे।)