कठोपनिषद्


प्रथम अध्याय
तृतीय वल्ली 


(द्वितीय मन्त्र)


यः सेतुरीजानानामक्षरं ब्रह्म यत्परम्।    
अभयं तितीर्षतां पारं नाचिकेतं शकेमहि ॥२॥

[(यमराज परमात्मा से प्रार्थना करते हैं कि हे परमात्मन् !)  जो यज्ञ करने वालों के लिए सेतु हैं (उस) नाचिकेत अग्नि (तथा) जो संसार-सागर को पार करने की इच्छावालों के लिए अभयपद हैं (उस) अविनाशी परब्रह्म को हम जानने में समर्थ हों।]

कठोपनिषद्


प्रथम अध्याय
तृतीय वल्ली 
(प्रथम मन्त्र)

ऋतं पिबन्तौ सुकृतस्य लोके गुहां प्रविष्टौ परमें परार्धे।
छायातपौ ब्रह्मविदो वदन्ति पज्चाग्नयो ये च त्रिणाचिकेताः ॥१॥

(पुण्यों (शुभकर्मों) के फलस्वरूप लोक में (मानवदेह के भीतर) श्रेष्ठ स्थल (हृदयप्रदेश) में परब्रह्म के परमोच्च निवास (हृदय की गुहा) में स्थित ऋत (सत्य का) पान करनेवाले दो (जीवात्मा और परमात्मा) छाया और आतप (प्रकाश, धूप) के सदृश रहते हैं ब्रह्मवेत्ता ऐसा करते हैं और तीन बार नाचिकेत अग्नि का चयन करनेवाले तथा पज्चाग्नि यज्ञ करने वाले (कर्मकाण्डी) गृहस्थजन भी ऐसा ही कहते हैं।)

कठोपनिषद्


(पचीसवाँ मन्त्र)


यस्य ब्रह्म च क्षत्रं च उभे भवत ओदनः।
मृत्युर्यस्योपसेचनं क इत्था वेद यत्र सः॥ २५॥

जिस (आत्मा) के लिए ब्रह्म (बुद्धिबल) और क्षत्र (बाहुबल) दोनों पके हुए चावल (भोजन) हो जाते हैं मृत्यु जिसका उपसेचन (चटनी) है वह (आत्मा) जहाँ (या कहाँ) कैसा है, कौन जानता है?

कठोपनिषद्


(चौबीसवाँ मन्त्र)

नाविरतो दुश्चरितान्नाशान्तो नासमाहित:।
नाशान्तमानसो वापि प्रज्ञानेनैनमाप्नुयात्॥ २४॥

जो दुराचार (दुष्कर्म) से निवृत्त (हटा) न हुआ हो, जो चञ्चल (अशान्त) है, जो प्रमादी है, सावधान (संयमी) नहीं है, जिसके मन में क्षोभ (अशांति) है, वह प्रज्ञान (सूक्ष्म बुद्धि) से भी इस आत्मा को नहीं प्राप्त कर सकता है।

कठोपनिषद्


(तेइसवां मन्त्र)

नायमात्मा प्रवचनेन लभ्यो न मेधया न बहुना श्रुतेन।
यमेवैष वृणुते तेन लभ्यस्तस्यैष आत्मा विवृणुते तनूं स्वाम्॥ २३॥


(
यह आत्मा न प्रवचन से, न मेधा (बुद्धि) से, न बहुत श्रवण करने से प्राप्त होता है जिसको यह स्वीकार कर लेता है उसको ही प्राप्त होता है यह आत्मा  उसके लिए अपने स्वरूप को प्रकट कर देता है।)