इस देहधारी मनुष्य के हृदयरूप गुहा में स्थित आत्मा (परमात्मा) अणु से भी छोटा, महान् से भी बड़ा है। आत्मा (परमात्मा) की उस महिमा को निष्काम व्यक्ति भगवान् की कृपा से (मन तथा इन्द्रियों की निर्मलता होने पर) साक्षात् देख लेता है और (समस्त) दुःखों से पार हो जाता है।
हन्ता चेन्मन्यते हन्तुं हतश्चेन्मन्यते हतम्। उभौ तौ न विजानीतो नायं हन्ति न हन्यते॥ १९॥
यदि कोई मारनेवाला स्वयं को मारने में समर्थ मानता है और यदि मारा जानेवाला स्वयं को मारा गया मानता है, वे दोनों ही (सत्य को) नहीं जानते। यह आत्मा न मारता है, न मारा जाता है।
(अठारहवाँ
मन्त्र) न जायते म्रियते वा विपश्चिन्नायं कुतश्चिन्न बभूव कश्चित्। अजो नित्य: शाश्वतोऽयं पुराणो न हन्यते हन्यमाने शरीरे॥ १८॥ (आत्मा न जन्म लेता है और न मृत्यु को प्राप्त होता है।यह न तो किसी से उत्पन्न हुआ हैनइससे कोई उत्पन्न हुआ है।यह अजन्मा, नित्य शाश्वत, पुरातन है। शरीर के नष्ट हो जाने पर
इसका नाश नहीं होता।)