कठोपनिषद्

(अठारहवाँ मन्त्र)
न जायते म्रियते वा विपश्चिन्नायं कुतश्चिन्न बभूव कश्चित्।
अजो नित्य: शाश्वतोऽयं पुराणो न हन्यते हन्यमाने शरीरे॥ १८॥
(आत्मा न जन्म लेता है और न मृत्यु को प्राप्त होता है। यह न तो किसी से उत्पन्न हुआ है  इससे कोई उत्पन्न हुआ है। यह अजन्मा, नित्य शाश्वत, पुरातन है। शरीर के नष्ट हो जाने पर इसका नाश नहीं होता।)

कठोपनिषद्

प्रथम अध्याय द्वितीय वल्ली
(सत्रहवाँ मन्त्र)

एतदालम्बनं श्रेष्ठमेतदालम्बनं परम्।
एतदावम्बनं ज्ञात्वा ब्रह्मलोके महीयते॥
१७॥

यह (ॐकार ही) श्रेष्ठ आलम्बन (आश्रय) है, यह आलम्बन सर्वोपरि है, इस आलम्बन को जानकर ब्रह्मलोक में महिमान्वित (आनन्दित) होता है।



कठोपनिषद्

प्रथम अध्याय द्वितीय वल्ली
(सोलहवां मन्त्र)

एतद्धेवाक्षरं ब्रह्म एतद्धेवाक्षरं परम्।
एतद्धेवाक्षरं ज्ञात्वा यो यदिच्छति तस्य तत्॥ १६॥


निश्चयरूप से यह (ॐ) अक्षर (नाश न होने वाला) ही तो ब्रह्म है यह ही परम (सर्वश्रेष्ठ) अक्षर हैइसीलिए इसी अक्षर को जानकर जो जिस विषय की इच्छा करता है उसको वह प्राप्त हो जाता है

कठोपनिषद्

(पन्द्रहवाँ मन्त्र)

सर्वे वेदा यत् पदमामनन्ति तपांसि सर्वाणि च यद् वदन्ति।
यदिच्छन्तो ब्रह्मचर्यं चरन्ति तत्ते पदं संग्रहेण ब्रवीम्योमित्येतत्॥ १५॥

सारे वेद जिस पद का प्रतिपादन करते हैं और सारे तप जिस
लक्ष्य की महिमा का गान करते हैं, जिसकी इच्छा करते हुए (साधकगण) ब्रह्मचर्य के नियमों का पालन करते हैं, उस पद को तुम्हारे (नचिकेता के) लिए संक्षेप में कहता हूँ, ओम् () ऐसा यह अक्षर है।

कठोपनिषद्

(चौदहवां मन्त्र)

अन्यत्र धर्मादन्यत्राधर्मादन्यत्रास्मात्कृताकृतात्।
अन्यत्र भूताच्च भव्याच्च यत्तत्पश्यसि तद्वद॥ १४॥

(नचिकेता ने कहा) धर्म (कर्त्तव्य रूप आचरण) से .पृथक्, अधर्म (अकर्त्तव्य) से भी पृथक्, इस कृत और अकृत (कार्य और कारण) से भिन्न, भूत, भविष्य और वर्तमान (तीनों कालों) से भी अलग, आप जिस उस (परमात्मा) आत्मतत्त्व को जानते हैं, उसे कहें।