प्रश्नोपनिषद्‍

प्रश्नोपनिषद्‍

स यथेमा नध्यः स्यन्दमानाः समुद्रायणाः समुद्रं प्राप्यास्तं गच्छन्ति भिध्येते तासां नामरुपे समुद्र इत्येवं प्रोच्यते ।
एवमेवास्य परिद्रष्टुरिमाः षोडशकलाः पुरुषायणाः पुरुषं प्राप्यास्तं गच्छन्ति भिध्येते चासां नामरुपे पुरुष इत्येवं प्रोच्यते स एषोऽकलोऽमृतो भवति तदेष श्लोकः ॥ 

(जिस प्रकार समुद्र की ओर बहती हुई ये नदियाँ समुद्र में पहुँच कर (उसी में) विलीन हो जाती हैं, उनके नाम-रूप नष्ट हो जाते हैं, और वे ‘समुद्र’ ऐसा कहकर ही पुकारी जाती हैं । उसी प्रकार इस सर्वद्रष्टा की ये सोलह कलाएँ (भी), जिनका अधिष्ठान पुरुष ही है, उस पुरुष को प्राप्त होकर लीन हो जाती हैं । उनके नाम-रूप नष्ट हो जाते हैं और वे ‘पुरुष’ ऐसा कहकर ही पुकारी जाती हैं । वह विद्वान् कलाहीन और अमर हो जाता है । इस सम्बन्ध मे यह श्लोक प्रसिद्ध है ॥)


कठोपनिषद्


द्वितीय अध्याय 
तृतीय वल्ली

(अठारहवाँ मन्त्र)
मृत्युप्रोक्तां नचिकेतोऽथ लब्ध्वा विद्यामेतां योगविधिं च कृत्स्त्रम्।
ब्रह्मप्राप्तो विरजोऽभूद्विमृत्युरन्योऽप्येवं यो विदध्यात्ममेव।।१८।।

इसको  (सुनने के) पश्चात् नचिकेता यम द्वारा  बतलाई गयी इस विद्या को और पूरी योग विधि को प्राप्त करके मृत्यु से रहित, विकारों से मुक्त होकर ब्रह्म को प्राप्त हो गया। अन्य कोई भी जो इस अध्यात्मविद्या को इस प्रकार से जानने वाला है, वह भी ऐसा ही हो जाता है।



कठोपनिषद्

द्वितीय अध्याय 
तृतीय वल्ली

(सत्रहवाँ मन्त्र)
अग्डु.ष्ठमात्र: पुरुषोऽन्तरात्मा सदा जनानां हृदये सन्निविष्ट:।
तं   स्वाच्छरीरात्प्रवृहेन्मुञ्जादिवेषीकां  धैर्येण।
तं   विद्याच्छुक्रममृतं    विद्याच्छुक्रममृतमिति।।१७।।

अँगूठे के परिमाण वाला पुरूष, जो सबका अन्तरात्मा है, सदा मनुष्यों के हृदय में भली प्रकार प्रविष्ट (स्थित) है। उसे मूंज से सींक की भांति अपने शरीर से धैर्यसहित पृथक् करें (देखें)। उसे विशुद्ध अमृत (स्वरुप) जानें , उसे विशुद्ध अमृत जानें।


कठोपनिषद्


द्वितीय अध्याय 
तृतीय वल्ली

(सोलहवाँ मन्त्र)
शतं चैका च हृदयस्य नाडयस्तासां मूर्धानमभिनिःसृतैका।
तयोर्ध्वमायन्नमृतत्वमेति विष्वङ्डन्या उत्क्रमणे भवन्ति ॥१६॥
हृदय की ओर (जाने वाली) सौ और एक नाडियाँ हैं। उनमें से एक (सुषुम्ना) मूर्धा (कपाल) की ओर निकली हुई है। उसके द्वारा (आरोहण करते हुए) ऊपर जाकर (जीवात्मा) अमृतभाव को प्राप्त हो जाता है। अन्य (सौ) नाडियाँ मरण-काल में (जीवात्मा को) नाना योनियों में जाने का हेतु होती हैं।


कठोपनिषद्


द्वितीय अध्याय 
तृतीय वल्ली

(पन्द्रहवाँ मन्त्र)
यदा सर्वे प्रभिद्यन्ते हृदयस्येह ग्रन्थयः।
अथ मर्त्योऽमृतो भवत्येतावद्धयनुशासनम् ॥१५॥
जब हृदय की समस्त ग्रन्थियाँ खुल जाती हैं, तब मरणशील  मनुष्य इसी शरीर में (इसी जीवन में) अमृत (मृत्यु से पार) हो जाता है। निश्चय ही, इतना ही उपदेश है।


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द्वितीय अध्याय 
तृतीय वल्ली

(चौदहवाँ मन्त्र)
यदा सर्वे प्रमुच्यन्ते कामायेऽस्यहृदिश्रिताः।
अथ मर्त्योऽमृतो भवत्यत्र ब्रह्म समश्नुते ॥१४॥
(जब इस (मनुष्य) के हृदय में स्थित सब कामनाएँ छूट (मिट) जाती हैं, तब मरणधर्मा मनुष्य अमृत (स्वरुप) हो जाता है। (वह) यहीं ब्रह्म का रसास्वादन कर लेता है।)


कठोपनिषद्


द्वितीय अध्याय 
तृतीय वल्ली

(तेरहवाँ मन्त्र)
अस्तीत्येवोपलब्धव्यस्तत्त्वभावेन चोभयोः।
अस्तीत्येवोपलब्धस्य तत्त्वभावः प्रसीदति ॥१३॥
वह (परमात्मा) है, ऐसा हृदयंगम करना चाहिए। तदनन्तर उसे तत्त्वभाव से भी ग्रहण कहना चाहिए और इन दोनों प्रकार से, वह है--ऐसी निष्ठावाले पुरुष के लिए परमात्मा का तात्त्विक (वास्तविक) स्वरूप प्रत्यक्ष (अनुभवगम्य) हो जाता है।


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द्वितीय अध्याय 
तृतीय वल्ली


(बारहवाँ मन्त्र)
नैव वाचा न मनसा प्राप्तुं शक्ये न चक्षुषा।
अस्तीति ब्रुवतोऽन्यत्र कथं तदुपलभ्यते ॥१२॥

(वह न वाणी से, न मन से, न चक्षु से ही प्राप्त किया जा सकता है, ‘वह है’ ऐसा कहने वाले के (कथन के) अतिरिक्त उसे अन्य किस प्रकार प्राप्त किया जा सकता है?)

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द्वितीय अध्याय 
तृतीय वल्ली


(दसवाँ मन्त्र)
यदा पञ्चावतिष्ठन्ते ज्ञानानि मनसा सह। 
बुद्धिश्च न विचेष्टति तामाहु: परमां गतिम्।।१०।।

जब मन के सहित पांचों ज्ञानेन्द्रियां भली प्रकार स्थित हो जाती हैं और बुद्धि चेष्टा नहीं करती उसे परमगति कहते हैं।

(ग्यारहवाँ मन्त्र) 
तां योगमिति मन्यन्ते स्थिरामिन्द्रियधारणाम्।
अप्रमत्तस्तदा भवति योगो हि प्रभवाप्ययौ।।११।।

उस स्थिर इन्द्रियधारणा को ‘योग’ मानते हैं। क्योंकि तब (वह) प्रमाद रहित हो जाता है (निश्व्चय ही) योग (शुभ के) उदय और (अशुभ के) अस्त वाला है।




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द्वितीय अध्याय 
तृतीय वल्ली
(नवाँ मन्त्र)


न संदृशे तिष्ठति रुपस्य न चक्षुषा पश्यति कश्चनैनम्।
ह्रदा मनीषा मनसाभिक्लृप्तो य एतद् विदुरमृतास्ते भवन्ति।।९।।

इसका रुप प्रत्यक्ष नहीं रहता। कोई इसे चक्षु (नेत्र) से नहीं देख पाता। इसे मन (मनन) के द्वारा ग्रहण करके, (निर्मल) हृदय से विशुद्ध बुद्धि से देखा जाता है। जो इसे जानते हैं वे अमृतस्वरुप हो जाते हैं।

कठोपनिषद्


द्वितीय अध्याय 
तृतीय वल्ली
(सातवाँ मन्त्र)


इन्द्रियेभ्य: परं मनो मनस: सत्त्वमुत्तमम्।
सत्त्वादधि महानात्मा महतो­­­ऽव्यक्तमुत्तमम्।।७।।

(इन्द्रियों से मन श्रेष्ठ (सूक्ष्म) है, मन से बुद्धि उत्तम है, बुद्धि से महान आत्मा (महत् तत्त्व, समष्टि बुद्धि अथवा हिरण्यगर्भ), महत् तत्त्व से अव्यक्त (प्रकृति) उत्तम है।)
 
(आठवाँ मन्त्र)
अवयक्तात्तु पर: पुरुषो व्यापकोऽलिग्ड् एव च।
यं ज्ञात्वा मुच्यते जन्तुरमृतत्वं च गच्छति।।८।।

(अव्यक्त से (भी) व्यापक और अलिंग (आकार रहित) पुरुष श्रेष्ठ (है) जिसे जानकर जीवात्मा मुक्त हो जाता है और अमृतस्वरुप को प्राप्त हो जाता है।)

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द्वितीय अध्याय 
तृतीय वल्ली
(छठा मन्त्र)


इन्द्रियाणां पृथग्भावमुदयास्तमयौ च यत्।    
पृथगुत्पद्यमानानां मत्वा धीरो न शोचति।।६।।

इन्द्रियों के जो पृथक्-पृथक् भूतों से उत्पन्न विभिन्न भाव (पृथक् स्वरुप) हैं तथा उनका जो उदय और अस्त होने वाला (स्व) भाव है, उसे जानकर धीर (बुद्धिमान) पुरुष शोक नही करता।

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द्वितीय अध्याय 
तृतीय वल्ली
(पाँचवाँ मन्त्र)


यथाऽऽदर्शे तथाऽऽत्मनि यथा स्वप्ने तथा पितृलोके।    
यथाप्सु परीव ददृशे तथा गन्धर्वलोके छायातपयोरिव ब्रह्मलोके।।५।।

दर्पण में जैसे (प्रतिविम्ब दीखता है), वैसे शुद्ध अन्त: करण में ब्रह्म (दीखता है), जैसे स्वप्न में, वैसे पितृलोक में, जैसे जल में, वैसे गन्धर्वलोक में (परमात्मा) दीखता-सा है। ब्रह्मलोक में छाया और आतप (धूप) की भांति (पृथक-पृथक दीखते हैं।)

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द्वितीय अध्याय 
तृतीय वल्ली
(चतुर्थ मन्त्र)


इह चेदशकद् बोद्धुं प्राक् शरीरस्य  विस्त्रस:।    
तत: सर्गेषु लोकेषु शरीरत्वाय कल्पते।। ४।।

(यदि शरीर के छूटने (मृत्यु) से पूर्व, इस शरीर में ही (आत्मा) को जानने में समर्थ हो सका (तो ही उचित है) अन्यथा सर्गों (कल्पों) तक लोकों में शरीरभाव को प्राप्त (होने को विवश) होता रहेगा।)

कठोपनिषद्


द्वितीय अध्याय 
तृतीय वल्ली
(तृतीय मन्त्र)


भयादस्याग्निस्तपति भयात् तपति सूर्य:।    
भयादिन्द्रश्च वायुश्च मृत्युर्धावति पञ्चम:।।३।। 

इसके भय से अग्नि तपता है, इसके भय से सूर्य तपता है , इसके भय से इन्द्र, वायु और पाँचवाँ मृत्यु (देवता) दौड़ते हैं।