कठोपनिषद्

प्रथम अध्याय द्वितीय वल्ली

(ग्यारहवां मन्त्र)

कामस्याप्तिं जगतः प्रतिष्ठां क्रतोरनन्त्यमभयस्य पारम्।
स्योममहदुरुगायं प्रतिष्ठां दृष्टवा धृत्या धीरो नचिकेतोत्यस्त्राक्षीः॥ ११॥

(हे नचिकेता ! तुमने भोग सम्बन्धी कामनाओं की प्राप्ति को, जगत की प्रतिष्ठा को, यज्ञादि के फल को, लौकिक निर्भीक्ता की पराकाष्ठा को, स्तुति योग्य महिमा और प्रतिष्ठा को, वेदों में जिसका गुणगान है ऐसे स्वर्ग को, (असार) देखकर स्थिरता के साथ (धैर्य पूर्वक विचार करके) छोड़ दिया है (इसलिए तुम) धीर (ज्ञानी) हो।)

कठोपनिषद्

प्रथम अध्याय द्वितीय वल्ली
(दसवां मन्त्र)
10th Mantra of second Valli (Kathopanishada)
जानाम्यहं शेवधिरित्यनित्यं न ह्यध्रुवैः प्राप्यते हि ध्रुवं तत्।
ततो मया नाचिकेतश्चितोमन्गिरनित्यैर्द्रव्यैः प्राप्तवानस्मि नित्यम्॥ १०॥

(मैं जानता हूँ कि धन, ऐश्वर्य अनित्य है। निश्चय ही अस्थिर साधनों से वह अचल तत्त्व (आत्मा) प्राप्त नहीं किया जा सकता। अतएव मेरे द्वारा नाचिकेत अग्नि का चयन किया गया और मैं अनित्य पदार्थों के द्वारा नित्य (ब्रह्म) को प्राप्त हो गया हूँ।)
Nachiketa agreed: “I know that earthly treasures are temporary because the eternal can never be attained by things which are non-eternal.  There for the Nachiketa fire (sacrifice) has been performed by me with transient things, I have obtained the eternal.”

कठोपनिषद्

प्रथम अध्याय द्वितीय बल्ली
(नौवाँ मन्त्र)

9th Mantra of Second Valli (Kathopanishada)
नैषा तर्केण मतिरापनेया प्रोक्तान्येनैव सुज्ञानाय प्रेष्ठ।
यां त्वमापः सत्यधृतिर्बतासि त्वादृक् नो भूयान्नचिकेतः प्रष्टा॥ ९॥

(हे परमप्रिय नचिकेता ! यह बुद्धि, जिसे तुमने प्राप्त किया है, तर्क से प्राप्त नहीं होती। अन्य (विद्वान्) के द्वारा कहे जाने पर भली प्रकार समझ में आ सकती है। वास्तव में, नचिकेता, तुम सत्यनिष्ठ हो। तुम्हारे सदृश प्रश्न पूछनेवाले हमें मिलें।)

This awakening you have known comes not through argument but It is truly known only when taught by another enlightened scholar (Who realized the supreme being). O beloved Nachiketa! You are indeed a man of real determination because you seek the Self eternal. May we have more seekers like you!

शान्तिपाठ

ॐ सह नाववतु। सह नौ भुनक्तु। सह वीर्यं करवावहै।
तेजस्वि नावधीतमस्तु। मा विद्विषावहै।
ॐ शान्ति:! शान्ति:!! शान्ति:!!!

(हे परमात्मन् आप हम दोनों गुरु और शिष्य की साथ- साथ रक्षा करें, हम दोनों का पालन-पोषण करें, हम दोनों साथ-साथ शक्ति प्राप्त करें, हमारी प्राप्त की हुई विद्या तेजप्रद हो, हम परस्पर द्वेष न करें, परस्पर स्नेह करें। हे परमात्मन् त्रिविध ताप की शान्ति हो। आध्यात्मिक ताप (मन के दु:ख) की, अधिभौतिक ताप (दुष्ट जन और हिंसक प्राणियों से तथा दुर्घटना आदि से प्राप्त दु:ख) की शान्ति हो।)
 
Aum! May Brahman (the Supreme Being) protect us both (The Guru and Shishya), May He give enjoyment us! May we attain strength! May our study be illuminative! May there be no jealous among us! 

                                 AUM! PEACE! PEACE! PEACE!

कठोपनिषद

प्रथम अध्याय द्वितीय बल्ली
(आठवां मन्त्र)
8th Mantra of Second Valli (Kathopanishada)    
न नरेणावरेण प्रोक्त एष सुविज्ञेयो बहुधा चिन्त्यमानः।
अनन्यप्रोक्ते गतिरत्र अमीयान् ह्यतर्क्यमणुप्रमाणात्॥ ८॥
अवर (साधारण,अल्पज्ञ) मनुष्य से उपदेश किए, बहुत प्रकार से चिन्तन किए जाने पर (भी) यह आत्मा सुगमता से जानने योग्य नहीं है। ईश्वर के किसी अनन्य भक्त (आत्मज्ञानी) के द्वारा उपदेश किये जाने पर इस आत्मा (के विषय) में सन्देह नहीं होता। यह आत्मा अणु के प्रमाण (सूक्ष्म) से भी अति सूक्ष्म है और निश्चय ही तर्क करने योग्य नहीं है।
Taught by an inferior person (ordinary ignorant) who has not realized that he is the Self, this Atman cannot be truly known. There is no doubt remained when it is taught by an exclusive devotee of God (an illumined teacher) who has become one with Atman (The Self), for It (Self) is subtler than the subtle and beyond argument.