कठोपनिषद्


द्वितीय अध्याय 
तृतीय वल्ली
(नवाँ मन्त्र)


न संदृशे तिष्ठति रुपस्य न चक्षुषा पश्यति कश्चनैनम्।
ह्रदा मनीषा मनसाभिक्लृप्तो य एतद् विदुरमृतास्ते भवन्ति।।९।।

इसका रुप प्रत्यक्ष नहीं रहता। कोई इसे चक्षु (नेत्र) से नहीं देख पाता। इसे मन (मनन) के द्वारा ग्रहण करके, (निर्मल) हृदय से विशुद्ध बुद्धि से देखा जाता है। जो इसे जानते हैं वे अमृतस्वरुप हो जाते हैं।

कठोपनिषद्


द्वितीय अध्याय 
तृतीय वल्ली
(सातवाँ मन्त्र)


इन्द्रियेभ्य: परं मनो मनस: सत्त्वमुत्तमम्।
सत्त्वादधि महानात्मा महतो­­­ऽव्यक्तमुत्तमम्।।७।।

(इन्द्रियों से मन श्रेष्ठ (सूक्ष्म) है, मन से बुद्धि उत्तम है, बुद्धि से महान आत्मा (महत् तत्त्व, समष्टि बुद्धि अथवा हिरण्यगर्भ), महत् तत्त्व से अव्यक्त (प्रकृति) उत्तम है।)
 
(आठवाँ मन्त्र)
अवयक्तात्तु पर: पुरुषो व्यापकोऽलिग्ड् एव च।
यं ज्ञात्वा मुच्यते जन्तुरमृतत्वं च गच्छति।।८।।

(अव्यक्त से (भी) व्यापक और अलिंग (आकार रहित) पुरुष श्रेष्ठ (है) जिसे जानकर जीवात्मा मुक्त हो जाता है और अमृतस्वरुप को प्राप्त हो जाता है।)

कठोपनिषद्


द्वितीय अध्याय 
तृतीय वल्ली
(छठा मन्त्र)


इन्द्रियाणां पृथग्भावमुदयास्तमयौ च यत्।    
पृथगुत्पद्यमानानां मत्वा धीरो न शोचति।।६।।

इन्द्रियों के जो पृथक्-पृथक् भूतों से उत्पन्न विभिन्न भाव (पृथक् स्वरुप) हैं तथा उनका जो उदय और अस्त होने वाला (स्व) भाव है, उसे जानकर धीर (बुद्धिमान) पुरुष शोक नही करता।

कठोपनिषद्


द्वितीय अध्याय 
तृतीय वल्ली
(पाँचवाँ मन्त्र)


यथाऽऽदर्शे तथाऽऽत्मनि यथा स्वप्ने तथा पितृलोके।    
यथाप्सु परीव ददृशे तथा गन्धर्वलोके छायातपयोरिव ब्रह्मलोके।।५।।

दर्पण में जैसे (प्रतिविम्ब दीखता है), वैसे शुद्ध अन्त: करण में ब्रह्म (दीखता है), जैसे स्वप्न में, वैसे पितृलोक में, जैसे जल में, वैसे गन्धर्वलोक में (परमात्मा) दीखता-सा है। ब्रह्मलोक में छाया और आतप (धूप) की भांति (पृथक-पृथक दीखते हैं।)

कठोपनिषद्


द्वितीय अध्याय 
तृतीय वल्ली
(चतुर्थ मन्त्र)


इह चेदशकद् बोद्धुं प्राक् शरीरस्य  विस्त्रस:।    
तत: सर्गेषु लोकेषु शरीरत्वाय कल्पते।। ४।।

(यदि शरीर के छूटने (मृत्यु) से पूर्व, इस शरीर में ही (आत्मा) को जानने में समर्थ हो सका (तो ही उचित है) अन्यथा सर्गों (कल्पों) तक लोकों में शरीरभाव को प्राप्त (होने को विवश) होता रहेगा।)