कठोपनिषद्


द्वितीय अध्याय 
द्वितीय वल्ली
(सातवाँ मन्त्र)


योनिमन्ये प्रपधन्ते शरीरत्वाय देहिनः।
स्थाणुमन्येऽनुसंयन्ति यथाकर्म यथाश्रुतम्।।७।।

(जैसा जिसका कर्म तथा जैसा जिसका श्रवण होता है (उसी के अनुसार) जीवात्मा शरीर धारण के लिए अनेक योनियो को प्राप्त होते है, अनेक स्थाणुभाव का अनुसरण करते है।)


कठोपनिषद्


द्वितीय अध्याय 
द्वितीय वल्ली
(पांचवाँ मन्त्र)
न प्राणेन नापानेन मर्त्यो जीवति कश्चन।    
इतरेण तु जीवन्ति यस्मिन्नेतावुपाश्रितौ।। ५।।

(कोई भी मरणशील प्राणी न प्राण से, न अपान से जीवित रहता है, किन्तु जिसमें ये दोनों (पञ्च प्राण) उपाश्रित हैं, उस अन्य से ही (प्राणी) जीवित रहते हैं।)

(छठा मन्त्र)
हन्तं त इदं प्रवक्ष्यामि गुह्यं ब्रह्म सनातनम्।    
यथा च मरणं प्राप्य आत्मा भवति गौतम।। ६।।

(हे गौतमवंशीय (नचिकेता) ! (वह) रहस्यमय सनातन ब्रह्म और जीवात्मा जैसे मरण को प्राप्त होता है, यह तुम्हें निश्चय ही बताऊँगा।)

कठोपनिषद्


द्वितीय अध्याय 
द्वितीय वल्ली
(चतुर्थ मन्त्र)


अस्य विस्त्रंसमानस्य शरीरस्थस्य देहिन:।
देहाद्विमुच्यमानस्य किमत्र परिशिष्यते।। एतद् वै तत्।। ४।।

(इस शरीर में स्थित, शरीर से चले जानेवाले जीवात्मा के शरीर से निकल जाने पर यहाँ (इस शरीर में) क्या शेष रहता है ? यह ही वह (ब्रह्म)  है।)

कठोपनिषद्


द्वितीय अध्याय 
द्वितीय वल्ली
(तृतीय  मन्त्र)


ऊर्ध्वं प्राणमुन्नयत्यपानं प्रत्यगस्यति।
मध्ये वामनमासीनं विश्वेदेवा उपासते।। ३।।

(जो) प्राण को ऊपर की ओर उठाता है, अपान वायु को नीचे की ओर ढकेलता है, शरीर के मध्यभाग (हृदय) में सूक्ष्म रूप से आसीन (स्थित) है, (उस) सूक्ष्म (सर्वश्रेष्ठ) परमात्मा की, सभी देवता उपासना करते हैं।

कठोपनिषद्


द्वितीय अध्याय 
द्वितीय वल्ली


(द्वितीय मन्त्र)


हंसः शुचिषद् वसुरन्तरिक्षसद्धोता वेदिषदतिथिर्दुरोणसत्।
नृषद् वरसदृतसद् व्योमसदब्जा गोजा ऋतजा अद्रिजा ऋतं बृहत्।। २।।

(पवित्र ज्योति (विशुद्ध परमधाम) में आसीन स्वयंप्रकाश पुरुषोत्तम परमात्मा (हंस), अन्तरिक्ष को व्याप्त करनेवाला देवता वसु है। यज्ञवेदी पर स्थित अग्नि तथा अग्नि में आहुति देनेवाला 'होता' है, घरों में पधारनेवाला अतिथि है, मनुष्यों में (प्राणरूप से) स्थित है तथा वरणीय श्रेष्ठ (देवों) में विराजमान है, ऋत (सत्य अथवा यज्ञ) में विद्यमान है, आकाश में व्याप्त है, जल में मत्स्य आदि के रूप में उत्पन्न है, पृथ्वी पर (चतुर्विध भूतग्राम के रूप में) विद्यमान है, सत्य (सत्कर्मों) के फल के रूप में प्रकट है, पर्वतों में अनेक प्रकार से (नदियों आदि के रूप में) प्रकट है, वही महान् सत्य (ब्रह्म) है।)