कठोपनिषद्


द्वितीय अध्याय 
प्रथम वल्ली
(चौदहवाँ  मन्त्र)


यथोदकं दुर्गे वृष्टं पर्वतेषु विधावति।   
एवं धर्मान् पृथक् पश्यंस्तानेवानुविधावति।। १४।।

(जिस प्रकार दुर्ग (उच्च शिखर) पर बरसा हुआ जल पर्वतों में इधर-उधर दौड़ता है (बह जाता है), उसी प्रकार शरीरभेदों (धर्म-स्वभावों) को पृथक्-पृथक् देखनेवाला मनुष्य उन्हीं के पीछे दौड़ता है (अनुसरण करता है)।

कठोपनिषद्


द्वितीय अध्याय 
प्रथम वल्ली
(बारहवाँ  मन्त्र)


अङ्गुष्ठमात्र: पुरुषो मध्य आत्मनि तिष्ठति।
ईशानो भूतभव्यस्य न ततो विजुगुप्सते।। एतद् वै तत्।। १२ ।।    

अङ्गुष्ठमात्र (अँगूठे के मापवाला) पुरुष देह के मध्यभाग (हृदयाकाश) में स्थित रहता है। वह भूत और भविष्यत् (काल) का शासन करनेवाला है। उसके जाने लेनेके पश्चात् मनुष्य घृणा, भय, आदि नहीं करता। यह ही तो वह है।

(तेरहवाँ  मन्त्र)


अङ्गुष्ठमात्रः पुरुषो ज्योतिरिवाधूमकः।
ईशानो भूतभव्यस्य स एवाद्य स उ श्वः।। एतद् वै तत्।। १३।।

अङ्गुष्ठमात्र (अँगूठे के मापवाला) पुरुष धूम रहित ज्योति की भाँति है। भूत और भविष्यत् का (अर्थात् काल का) शासक है। वह ही आज है और वह ही कल है (सनातन है)। यही है वह।

कठोपनिषद्


द्वितीय अध्याय 
प्रथम वल्ली
(दसवाँ  मन्त्र)


यदेवेह तदमुत्र यदमुत्र तदन्विह।
मृत्योः स मृत्युमाप्रोति य इह नानेव पश्यति।। १०।। 

जो (परब्रह्म परमात्मा) यहाँ (इस लोक में) है, वही वहाँ (उस लोक में) है। जो वहाँ (परलोक में) है, वही यहाँ (इस लोक में) है। जो यहाँ (परमात्मा को) अनेक की भाँति देखता है, वह मृत्यु से मृत्यु को प्राप्त करता है।

(ग्यारहवाँ मन्त्र)


मनसैवेदमाप्तव्यं नेह नानास्ति किंचन।
मृत्यो: स मृत्युं गच्छति य इह नानेव पश्यति।। ११।।

विशुद्ध एवं सूक्ष्म) मन से ही यह (परमात्म तत्त्व) प्राप्त करने योग्य है यहाँ (जगत् में) अनेक कुछ भी नहीं है। जो मनुष्य यहाँ (इस जगत् में) (परमात्मा को) अनेक की भाँति देखता है, वह मृत्यु से मृत्यु को प्राप्त होता है।





 



कठोपनिषद्


द्वितीय अध्याय 
प्रथम वल्ली
(नवाँ मन्त्र)


यतश्चोदेति सूर्योऽस्तं यत्र च गच्छति।
तं देवा: सर्वे अर्पितास्तदु नात्येति कश्चन।। एतद् वै तत्।। ९।।

जहाँ (जिस) से सूर्य उदय होता है तथा जिसमें अस्त होता है, सब देव उसे समर्पित हैं (उसमें प्रतिष्ठित हैं)। उस परमात्मा को निश्चय ही कोई भी नहीं लाँघ सकता है। यही तो वह है।

कठोपनिषद्


द्वितीय अध्याय 
प्रथम वल्ली
(आठवाँ मन्त्र)

अरण्योर्निहितो जातवेदा गर्भ इव सुभृतो गर्भिणीभिः।
दिवे दिवे ईडयो जागृवद्भिर्हविष्मद्भिर्मनुष्येभिरग्निः।। एतद् वै तत्।।८।।

सर्वज्ञ अग्निदेव (जो) गर्भिणी स्त्रियों द्वारा उत्तम प्रकार से धारण किये हुए सुरक्षित गर्भ की भाँति दो अरणियों में निहित है (वह) सावधान रहकर (योग्य सामग्रियों से) यज्ञ करने वाले मनुष्यों द्वारा प्रतिदिन स्तुति करने के योग्य है। यही है वह। (जिसे तुमने जानना चाहा है।)