कठोपनिषद्


द्वितीय अध्याय 
प्रथम वल्ली
(सातवाँ मंत्र)


या प्राणेन संभवत्यदितिर्देवतामयी।
गुहां प्रविश्य तिष्ठन्तीं या भूतेभिर्व्यजायत।। एतद् वै तत्।। ७।।

जो सर्वदेवतामयी अदितिदेवी (खानेवाली शक्ति) प्राणों के साथ उत्पन्न होती है, जो प्राणियों के सहित उत्पन्न हुई है, हृदयरूपी गुहा में प्रविष्ट होकर स्थित रहती है, यह ही वह है (जिसे तुम जानना चाहते हो)।

कठोपनिषद्


द्वितीय अध्याय 
प्रथम वल्ली
(छठवाँ मन्त्र) 

य: पूर्वं तपसो जातमद्भय: पूर्वमजायत।
गुहां प्रविश्य तिष्ठन्तं यो भूतेभिर्व्यपश्यत।। एतद् वै तत्।। ६।।

जो (मनुष्य) सर्वप्रथम तप से (पूर्व) प्रकट होने वाले (हिरण्यगर्भ) को, जो जल (आदि भूतों) से पूर्व पूर्व उत्पन्न हुआ, भूतों के साथ हृदयरूप गुहा में संस्थित देखता है, (वही उसे देखता है)। यह ही वह (आत्मा) है।

कठोपनिषद्


द्वितीय अध्याय 
प्रथम वल्ली
(पाँचवाँ मन्त्र)

य इमं मध्वदं वेद आत्मानं जीवमन्तिकात्।
ईशान भूतभव्यस्य  न ततो विजुगुप्सते।। एतद् वै तत्।। ५।।
जो कर्मफलभोक्ता (मनुष्य) जीवन के स्त्रोत परमात्मा को समीप से (भली प्रकार) भूत, भविष्यत् (और वर्तमान) के शासक के रूप में जान लेता है, फिर वह ऐसा जानने के पश्चात् भय, घृणा नहीं करता। निश्चय ही (यही तो) वह आत्मतत्त्व है (जिसे तुम जानना चाहते हो)।

कठोपनिषद्


द्वितीय अध्याय 
प्रथम वल्ली
(चतुर्थ मन्त्र)


स्वप्नान्तं जागरितान्तं चोभौ येनानुपश्यति।
महान्तं विभुमात्मानं मत्वा धीरो न शोचति।। ४।।

स्वप्न के मध्य में, जाग्रत-अवस्था में, इन दोनों अवस्थाओं में जिसके प्रताप से (मनुष्य दृश्यों को) देखता है, (उस) महान् सर्वव्यापी आत्मा (परमात्मा) को जानकर धीर (बुद्धिमान्) पुरुष शोक (चिन्ता आदि) नहीं करता।

कठोपनिषद्


द्वितीय अध्याय 
प्रथम वल्ली
(तृतीय मन्त्र)


येन    रुपं  रसं    गन्धं    शब्दान्स्पर्शांश्च   मैथुनान्। 
एतेनैव विजानाति किमत्र परिशिष्यते।। एतद् वै तत्।।३।। 

जिस (आत्मा) से (मनुष्य) शब्द, स्पर्श, रस, गन्ध और मैथुन (स्त्री-प्रसंग) (के सुख) को जानता है, इसी (आत्मा) से ही तो जानता है। कौन सा ऐसा पदार्थ है जो यहां (इस जगत् में) शेष रह जाता है (जिसे आत्मा नहीं जानता) ? यही तो वह है (जिसे तुम जानना चाहते हो)।