प्रथम अध्याय द्वितीय वल्ली
(बारहवां मन्त्र)
तं दुर्दर्शं गूढमनुप्रविष्टं गुहाहितं गव्हरेष्ठं पुराणम्।
अध्यात्मयोगाधिगमेन देवं मत्वा धीरो हर्षशोकौ जहाति॥ १२॥
अध्यात्मयोगाधिगमेन देवं मत्वा धीरो हर्षशोकौ जहाति॥ १२॥
उस कठिनता से प्राप्त करने योग्य, सूक्ष्म, अन्तःकरण और आत्मा में व्यापक, हृद्याकाश में स्थित, दुष्प्राप्य, नित्य (सनातन) देव (परमात्मा) को अध्यात्म (आत्मा सम्बन्धी) योग के अभ्यास से जानकर, विद्वान् पुरुष हर्ष और शोक (सुख-दुःख) दोनों को छोड़ देता है।