नचिकेता का साहस
बात बहुत पुरानी है । उस समय हमारे देश में यज्ञों का बहुत प्रचार था । हर एक गाँव में महीने भर में दो-चार यज्ञ हुआ करते थे । यज्ञ के सुगंधित धुएँ से आकाशमण्डल धूमिल बना रहता था । पवित्र शान्त सुगन्धित पवन के मन्द- मन्द झोकों से चारों ओर का वातावरण बहुत स्वास्थ्यप्रद और रमणीक बना रहता था । वेद के पवित्र मन्त्रों के उच्चारण से दिशाएँ गूंजती रहती थीं। लोगों के दिन आनन्द और मस्ती में क्षरण के समान बीतते थे। न किसी को खाने-पीने की कमी रहती थी और न शत्रुता का भय । सभी लोग सत्य बोलते थे, जीवमात्र के लिए मन में उपकार की भावना रखते थे और किसी छल छिद्र का उन्हें कोई पता नहीं रहता था । ऐसे पवित्र सत्य युग में महर्षि गौतम के वंश में बाजश्रवा के पुत्र उद्दालक नाम के एक महात्मा ऋषि हुए थे । उद्दालक की गृहस्थी बहुत बड़ी तो नहीं थी, पर गौओ का एक बहुत बड़ा झुण्ड उनके पास अवश्य था । वेदाभ्यास में निरत एक तपस्वी ब्राह्मण के लिए उस समय वह बहुत बड़ी सम्पत्ति थी ।
जब उद्दालक वृद्ध हो चले तो एक दिन उनके मन में यह विचार आया कि 'सारी उमर बीतती जा रही है, अभी तक मैंने कोई बड़ा यज्ञ नहीं किया । इन छोटे-छोटे यज्ञों के क्या मोक्ष की प्राप्ति हो सकती है ? यह धन-सम्पत्ति और किस काम आएगी ? इनके रखने से भी तो शांति नहीं मिलती, सन्तोष नहीं होता । अच्छा होगा कि सर्वमेध यज्ञ करके गृहस्थी का सारा भार बहुत कुछ 'कम कर दिया जाय ।'
इस तरह बहुत कुछ सोचने-विचारने के बाद उद्दालक ने सर्वमेघ यज्ञ करने का विचार पक्का किया । सर्वमेध कोई मामूली यज्ञ नहीं था, उसे बड़े-बड़े राजा लोग करते थे । उसमें यजमान को अपना सब कुछ दक्षिणा में दान कर देना पड़ता था । उसके लिए शास्त्रों में कहा गया है कि 'जो सच्चे भाव से सर्वमेध यज्ञ करता है, वह मृत्यु को जीत लेता है और संसार के सभी दुःखों से सदा के लिए छुटकारा पा जाता है ।'
उद्दालक का सर्वमेध यज्ञ प्रारम्भ हो गया। देश के कोने-कोने के बड़े-बड़े विद्वान्, पण्डित और महात्मा लोग उस यज्ञ में सम्मिलित हुए। इस यज्ञ मे उद्दालक ने सचमुच अपनी सारी गृहस्थी समाप्त कर दी । पूर्णाहुति का पुण्य दिन आया, वेदों के पवित्र मंत्रों का उच्चारण करते हुए पण्डितों ने आकाश मंडल को गुंजा दिया । यज्ञधूम की चंचल सुगन्धित लहरें क्षितिज तक व्याप्त हो गयीं । पुण्यात्मा उद्दालक ने मांगलिक गीतों और वाद्यों की आकाश-भेदी ध्वनियों के बीच में नारियल की अन्तिम आहुति यज्ञकुण्ड में समर्पित की और चारों ओर से उनका जय-जयकार होने लगा । अब पुरोधा पण्डितों तथा आगत महात्माओं को दक्षिणा देने की बेला आयी । गोओं को छोड़कर उद्दालक के पास कोई वस्तु शेष नहीं थी, अतः वह उनमें से एक-एक गाय दक्षिणा रूप में देने लगे ।
अपनी सब गौओ का दान करते समय उद्दालक की पवित्र आत्मा भी सर्वस्व त्याग की कठोरता से काँप उठी। वह मन ही मन सोचने लगे- 'सब गोएँ दे डालने पर जीविका कैसे चलेगी ? बेटा भी अभी उम्र का छोटा है, क्या वह जायगा ? मेरा वृद्ध शरीर भी अब इस योग्य नहीं रहा कि परिश्रम करके प्रति दिन की जीविका पैदा कर सकूं।' वह सचमुच विचलित हो गए। लोभ की इस क्षीण काली रेखा ने धीरे-धीरे उनके निर्मल हृदय में घना रूप बना लिया । उन्होंने गौधों के समूह की ओर दृष्टि डाली, देखा तो जितने पण्डित अभी शेष थे, उससे अधिक गौएँ बचती थीं, मगर उनमें बहुतेरी बुड्ढी गौऐं भी थीं। वह तुरन्त ही कुश और अक्षत को नीचे रखकर गौधों के समूह की ओर चले गये । वहाँ कपट से विचलित होकर अच्छी-अच्छी गौधों को पीछे की ओर छोड़कर बुड्ढी और अधेड़ गौधों को आगे की ओर हाँक लाये और उसी में से एक-एक करके पण्डितों को दक्षिणा में देने लगे। उनकी इस चालाकी का पता किसी को कानों कान नहीं लगा; पर उनका बेटा नचिकेता, जिसकी उमर अभी दस- बारह साल से कम ही थी, यह सब चुपचाप देख रहा था ।
नचिकेता का निष्पाप कोमल हृदय पिता की इस काली करतूत पर कांप उठा । उसने देखा कि महीनों तक अनवरत परिश्रम करनेवाले पुरोहितों और पण्डितों को ऐसी-ऐसी गौएँ दो जा रही हैं, जो एकदम बुड्ढो हो चली हैं, न उनसे बछड़े की कोई आशा है, न दूध की । यहाँ तक कि उनमें से कुछ इतनी जर्जर हो गई हैं, जो न कुछ खा सकती हैं, न अधिक पानी ही पी सकती हैं। इन जीवन्मृत गौधों को दान में देकर पिताजी पण्डितों के साथ कितना विश्वासघात कर रहे हैं—यह सोचकर वह बहुत ही दुःखी हुपा । उसने पीछे को मोर देखा तो बड़ी अच्छी-प्रच्छो गौएँ चर रही थीं, और उद्दालक उनकी थोर तनिक भी ध्यान न देकर इन जर्जरित गोपों का चुपचाप दान करते जा रहे थे । सामने जितनी वृद्ध गौएँ खड़ी थीं, उतने हो पण्डितों को दान भी देना शेष था । नचिकेता सोचने लगा- 'क्या पिताजी सचमुच सर्वमेध यज्ञ कर रहे हैं ? नहीं, नहीं। यह पापमेघ है, कपटमेध है, सर्वमेध नहीं । शायद पिताजी मेरे लिए इनको रख छोड़ते हों। हाँ। मगर उन्हें ऐसा तो नहीं करना चाहिए । यज्ञनारायण के साथ कपट करके वह मेरा कल्याण किस प्रकार कर सकते हैं ? इस प्रकार के कपट व्यापार से बचाई गई ये गोएँ मेरा भी सत्यानाश कर देंगी । पण्डितों का मूक अभिशाप हमारे परिवार का भाषण विनाश कर देगा। पिताजी गिर रहे हैं, इनको बचाना या ठोक रास्ते पर लाना मेरा कर्तव्य होता है। मुझे ऐसे अवसर पर चुप नहीं रहना चाहिए।' विचारों के इस प्रखर प्रवाह में बहकर नचिकेता पिता के समीप गया और हाथ जोड़कर बोला- 'तात ! यह तो सर्व- मेघ यज्ञ है न ?'
उद्दालक का मुख भीतरी पाप की काली छाया से उस समय मलिन पड़ रहा था । ब्रह्मवर्चस् एवं सर्वस्व त्याग की वह आभा, जो अभी तक उनके उन्नत ललाट में दीपशिखा के समान जल रही थी, राख-सी काली पड़ गई थी। पुत्र की सुमधुर विनीत वाणी में 'सर्वमेध' का नाम सुनकर वह भीतर से और भी काँप उठे । परन्तु चुप कैसे रह सकते थे ? मुख पर मुस्कराहट की बनावटी रेखा बनाते हुए बोले- 'हाँ वत्स ! यह स.... स सर्वमेध यज्ञ है । बात क्या है ?'
उद्दालक तुतलाते तो नहीं थे, पर पाप तो शिर पर चढ़कर बोलता है ! अपनी दुष्कृति पर वह फिर से काँप उठे। पर, पाप तो उन्हें अपने पथ पर बहुत दूर तक खीच चुका था, वहाँ से लौटना उद्दालक जैसे के लिए भी आसान काम नहीं रह गया था।
नचिकेता चुप बना रहा। फिर श्रागे बोलने की उसमें सहसा हिम्मत नहीं पड़ी। वह समझता था कि 'सर्वमेध' का स्मरण दिला देना ही पिताजी के लिए पर्याप्त होगा; पर उसके पिता यह कैसे समझते कि नचिकेता क्या चाहता है ? फिर वह उन्हीं बुड्ढी गौधों में से एक गाय लाकर सामने बैठे हुए पुरोहित को दान करने जा रहे थे । नचिकेता विवश होकर अनजाने में फिर बोल उठा- 'मेरे तात ! इन सब गौधों को देने के बाद मुझे किसे दीजिएगा ? आपने तो बताया था न, कि इस यज्ञ में अपना सब कुछ दे दिया जाता है।'
उद्दालक सिहर उठे । एक अज्ञात भय एवं पाप की भयावनी मूर्ति-सी उन्हें दिखाई पड़ी । परन्तु वह पाप-पथ से पीछे नहीं लौटे। नचिकेता का समाधान करना भी उन्होंने उचित नहीं समझा । श्रांखों को तरेरकर उन्होंने एक उड़ती सी निगाह नचिकेता पर डाली, जिसका तात्पर्य शायद यह था कि 'यहाँ से चले जानो, व्यर्थ की बकवास मत करो ।' पर नचिकेता वहीं खड़ा रहा। उसने देखा कि पिताजी अब एक ऐसी गाय का दान करने जा रहे हैं, जो उठाने की कोशिश करने पर भी नहीं उठ रही है और उधर दान लेनेवाले पुरोहित का मुख उदास हो गया है । फिर भी पिताजी उस गाय को उसी तरह बैठे ही बैठे दान कर रहे हैं। वह एकदम विह्वल गया। उसने तय कर लिया कि पिता जी को अब ऐसा घोर पाप नहीं करने दूँगा । झटपट गाय के पास खड़े होकर उसने फिर वही बात दुहराई ! 'मेरे तात ! इस सर्वमेध यज्ञ में मुझे किस ब्राह्मण को दान कर रहे हैं ? मैं उसे देखूंगा। मैं भी तो तुम्हारा ही हूँ न ।'
उद्दालक की पाप भावना ने कठोर क्रोध का स्वरूप धारण कर लिया। उनकी साँसें जोर-जोर से चलने लगीं। नथुने फड़कने लगे । दाँतों की ऊपरी पंक्ति ने निचले होंठ को चबा लिया । श्राँखों से दाहक अंगार की ज्वाला-सी निकलने लगी। हाथ में लिए हुए कुश, अक्षत और जल को नीचे फेंकते हुए वह भीषण स्वर में बरस पड़े— 'पापात्मा कुपुत्र ! तुझे मैं यमराज दो दान कर रहा हूँ, जा तू उसे शीघ्र ही देखेगा। विशाल यज्ञमण्डप में एक छोर से दूसरे छोर तक उद्दालक के कठोर स्वर ने भीषग्ण आतंक की लहर-सी फैला दी। जो जहाँ खड़े या बैठे थे, ठगे-से रह गये । धर्म के अवसर पर यह महान् श्रनर्थ । मङ्गल में श्रमङ्गल । सबके देखते- देखते नचिकेता यमराज के घर जाने की तैयारी में लग गया। वह सचमुच धरतो पर गिर पड़ा था और उसके मुख पर एक अपूर्व ज्योति की छटा विराजमान हो रही थी । कहने को तो उद्दालक के मुख से तीर के समान वह कठोर वचन निकल गया, पर उसकी भीषण यथार्थता ने उन्हें विकम्पित कर दिया। एकलौते प्रिय पुत्र की मृत्यु के घर जाने की बात को वह किस प्रकार बर्दाश्त कर सकते थे । चारों श्रोर से लोग दौड़ पड़े और घेर कर नचिकेता के पास खाड़े हो गये ।
सत्याग्रही नचिकेता जब इस लोक से पिता की आज्ञा प्राप्त कर मृत्यु के लोक जाने का निश्चय कर चुका तो उसे वापस कौन ला सकता था ? उद्दालक का सहज वात्सल्य कृत्रिम क्रोध को दूर भगाकर उमड़ पड़ा। पुत्र को स्नेह से अङ्क में उठाते हुए वह गद्गद कण्ठ से बोले – 'बेटा! तू कहाँ जा रहा है ? मेरी बात का ध्यान न कर । मैं आवेश में यह सब कह गया। भला सोच तो सही, कि तेरे बिना मेरा बुढ़ापा कितना कठिन हो जायगा । मेरे प्यारे ! मैं पाप-पंक में फँस गया था, ,मेरी बुद्धि बिगड़ गई थी, तू उसका ख्याल न कर ।'
परन्तु नचिकेता का लोटना आसान काम नहीं था। उसने दोनों हाथों को जोड़कर विनीत स्वर में कहा - ' पूज्य तात ! आप बतलाते थे कि मेरी इक्कीस पीढ़ियों से लेकर आज तक किसी ने अपना वचन कभी भंग नहीं किया है। मैं भी चाहता हूँ कि अपनी वंश-मर्यादा को सुरक्षित रखूं । पिता की (आपकी) आज्ञा का उल्लंघन, वह चाहे जिस दशा में भी हो, में कभी नहीं कर सकता । धाप भी अपना वचन निभाइए और प्रसन्नता के साथ मुझे मृत्यु के घर सकुशल पहुँचने का आशीर्वाद दीजिए ।'
उद्दालक नचिकेता की इस निश्चय भरी विनत वाणी से विचलित हो गये। उसे गले से लगाते हुए क्षीण स्वर में उन्होंने कहा- 'मेरे प्यारे ! मैं उस निर्मम मृत्यु के घर जाने का आशीर्वाद तुझे नहीं दे सकता। जिसके स्मरण मात्र से मेरा हृदय काँप रहा है, उसके पास तू कैसे जायगा ? कुसुम के समान कोमल तेरा शरीर कठोर मृत्यु के पास जाने योग्य नहीं है। बेटा ! मैंने अपराध किया है । भले ही मुझे वचन भंग करने का पाप लगे; पर मैं तुझे वहाँ कदापि नहीं जाने दूँगा ।'
नचिकेता ने आँखें खोलकर देखा तो उद्दालक की आंखों से आँसूत्रों की अविरल धारा बह रही थी। अपने कोमल हाथों से आँसू को पोंछते हुए उसने कहा – ' पूज्य तात ! मैं उस मृत्यु से तनिक भी नहीं डर रहा हूँ, जिसके लिए आप घबरा रहे हैं । आप मेरी चिन्ता छोड़ दीजिए, और अपने पुण्यकर्मा पूर्वजों का स्मरण कीजिए, जिन्होंने प्राण गँवाकर भी अपने वचन रखे हैं। असत्य का व्यवहार स्वार्थी और पापी जन करते हैं । उस असत्य से कोई श्रमर नहीं होता । मेरी बड़ी इच्छा यह है कि मेरे इस कार्य से आपके और मेरे—दो पुरुषों के वचनों को रक्षा हो । मेरी ममता की डोर में बंधकर ही आप इतने विह्वल हो रहे हैं। मेरे न रहने पर आप अपना सर्वस्व त्याग कर सर्वमेघ यज्ञ का महान् पुण्य पाएँगे । पुत्र का यही कर्तव्य है कि वह अपना सर्वस्व गँवाकर भी पिता के वचनों का पालन करें, उसकी इच्छा की पूर्ति करे। मेरे तात ! मैं इस अपूर्व अवसर को सामने पाकर छोड़ नहीं सकता। मुझे रोककर आप यज्ञ की समाप्ति में विलम्ब मत लगाइये । सर्वस्त्र त्याग कर सर्वमेध यज्ञ के इतिहास में अपना अमर यश छोड़ जाइए ।
पुत्र की दृढ़ निश्चय धौर प्रेरणा से भरी बातें सुनकर उद्दालक मॅ कहने की हिम्मत नहीं पड़ी। यज्ञमण्डप में कुमार नचिकेता ने अपने पूज्य पिता के चरणों पर शीस घरकर मृत्युलोक का मार्ग ग्रहण किया। सारी जनमण्डली कुछ आगे चित्र के समान खड़ी देखती रह गयी। वह अपने कर्त्तव्य पथ पर कमर कसकर साहस और प्रसन्नता के साथ आगे चल पड़ा ।
मृत्यु अर्थात् यमराज के घर का मार्ग सचमुच बड़ा भयावना था । नचिकेता ने देखा कि अपने-अपने कर्मों के कारण लोग मृत्यु से किस तरह घबराते हैं । हृदय में छाई हुई पाप की रेखायों से लोगों का मन इतना भयभीत है कि सारे मार्ग में हाहाकार मचा हुआ है । कोई अपने पुत्र के लिए रो रहा है तो किसी को पत्नी के वियोग का दुःख है । परन्तु नचिकेता को तो सचमुच पूर्व प्रानन्द मिल रहा था । प्रसन्नता धौर उत्साह के साथ उसने मार्ग को सारी कठिनाइयों का अन्त कर दिया । पिता की प्राज्ञा के पालन करने में उसे जो शान्ति मिल रही थी, वह भूलोक के मायिक जीवन में कहीं नहीं थी। निर्भीक नचिकेता जिस समय मृत्यु के द्वार पर पहुँचा, उस समय संयोग से यमराज कहीं बाहर गये हुए थे। श्रतः द्वारपालों ने उसे भीतर घुसने की अनुमति नहीं दी । विवश होकर उसे बाहर एक वृक्ष के नीचे सुन्दर चबूतरे पर बैठकर यम की प्रतीक्षा करने को कहा गया । वह वहीं पर चुपचाप बैठकर यम की प्रतीक्षा करने लगा ।
कुछ ऐसा काम पड़ गया था कि यमराज तीन दिनों तक बाहर से अपने घर लौट नहीं सके थे । नचिकेता अविचलित मन से वहीं शान्तिपूर्वक बैठकर उनकी प्रतीक्षा करता रहा । बीच-बीच में वह यह सोचकर पुलकित हो जाता कि अव मेरे पिताजी ने उन धच्छी गौओं को दान में देकर सर्वमेध यज्ञ को पूरा कर लिया होगा। चौथे दिन यमराज अपने पुर को वापस आये । भवन में प्रवेश करते हुए उन्होंने देखा कि एक परम तेजस्वी सुन्दर बालक हाथ जोड़कर सामने खड़ा है, उसमें भय की कोई रेखा नहीं है । यमराज ने मुस्कराकर पूछा- 'कुमार ! तुम कौन हो और यहाँ किस काम के लिए आए हो ?'
नचिकेता के बोलने के पूर्व ही यमराज के दोनों द्वारपालों में से एक ने हाथ जोड़कर कहा - 'महाराज ! यह तेजस्वी बालक तीन दिन हुए तब से यहीं बैठा हुआ है, न इसने कुछ खाया है, न कुछ पिया है ।'
यमराज का कृत्रिम कठोर हृदय भी किशोर नचिकेता की करतूतों को सुनकर करुणा से उमड़ पड़ा। उन्होंने मुस्कराते हुए कहा – 'बेटा! तुम कौन हो और क्यों यहाँ आए हो ? शीघ्र बतलाओ ! मैं भी बिना तुम्हारा काम किए हुए अन्न- जल नहीं ग्रहण करूंगा।'
नचिकेता यमराज की इस सहज उदारता को देखकर निहाल हो उठा। पिता ने यम के बारे में कितना गलत बतलाया था कि वह बड़े भयानक हैं, पर यह तो कितने दयालु हैं ? सचमुच इनकी बातों को सुनकर मैं अपूर्व सन्तोष पा रहा हूँ । थोड़ी देर तक मृत्यु के तेजस्वी मुख को श्रोर निर्निमेष ताकते हुए नचिकेता विनीत स्वर में बोला—'देव ! मैं मुनिवर उद्दालक का पुत्र हैं, मेरा नाम नचिकेता है । मेरे पज्य पिताजी ने अपने सर्वमेध यज्ञ में मुझे दक्षिणा के रूप में आपको प्रदान किया है। आप मुझे सस्नेह ग्रहण कर उन्हें यज्ञ की सम्पन्नता का श्राशीर्वाद दीजिए। मैं यहाँ इसीलिए आपकी सेवा में उपस्थित हुआ हूँ ।'
यमराज तेजस्वी ब्राह्मण कुमार नचिकेता की निर्भीकता पर ठगे से खड़े रह गये । उन्होंने मन में सोचा, यज्ञ की दक्षिणा में सुकुमार पुत्र का दान और सो भी मुझको ! धन्य है वह पिता और धन्य है यह पुत्र ! ऐसे दृढ़ निश्चयी ब्राह्मणों के लिए हमारा शतशः प्रणाम है। अपने जीवन में मैंने कभी ऐसे साहसी श्रौर सत्यनिष्ठ बालक को कहीं नहीं देखा है। ऐसे पुत्ररत्न के पैदा करनेवाले पिता सचमुच धन्य हैं। विचारों की बाढ़ में यमराज बहने लगे । इस तरह थोड़ी देर तक चुप रहने के बाद उन्होंने नचिकेता के शिर पर हाथ फेरते हुए कहा- 'बेटा ! मेरे यहाँ आते हुए तुम डरे नहीं ! तुम्हारे पिता ने भी कुछ नहीं सोचा । धीर से धीर लोग भी यहाँ श्राने में विचलित हो जाते हैं। तुम धन्य हो ।'
नचिकेता ने कहा- 'देव ! मैं इस संसार में केवल पाप से डरता हूँ, आप पाप तो हैं नहीं? मैं तो आपको सारे संसार को शान्ति देनेवाला मानता हूँ । श्रापके समान उपकारी इस जगत् में दूसरा कौन है, जो मनुष्य के दीन होन सन्तप्त जीवन को चिर शान्ति देता हो ।'
कुमार नचिकेता की भोली-भाली बातों को सुनकर यमराज बहुत प्रसन्न हुए धौर बोले— 'कुमार ! मुझे बहुत दुःख है कि तुम्हारे समान तेजस्वी निर्मल हृदय ब्राह्मण कुमार को मेरे दरवाजे पर तीन दिन तीन रात तक भूखा रहना पड़ा । बिना कुछ प्रोढ़े बिछाए तुम इस चबूतरे पर पड़े रहे। मेरे आतिथ्य धर्म की इस से बड़ी हानि हुई है। मुझे सचमुच इसका बहुत खेद है । अपने इस खेद को कम करने के लिए ही मैं तुझे तीन वरदान देना चाहता हूँ। ब्राह्मणकुमार ! सचमुच तुम्हारे जैसे साहसी बालक समझता ।' के लिए मैं तीनों लोकों में कोई भी वस्तु प्रदेय नहीं
यमराज की बातें सुनकर नचिकेता आनंद के समुद्र में हिलोरें लेने लगा । वह कुछ क्षण के लिए सोचता रहा। फिर हाथ जोड़कर बोला- 'भगवन् ! मैं तो आपही का दास हूँ । यह आपकी महत्ता है, जो मुझे एक अतिथि का सम्मान देकर वरदान देना चाहते हैं। मैंने कोई बड़ा काम भी नहीं किया है, पर उसके बदले मुझे वरदान देकर आप अपनी दयालुता का परिचय दे रहे हैं। लोग संसार में ही श्रापके नाम से भय खाते हैं, प्रापके समान सहज दयालु कौन हैं, जो अपने कर्तव्य पालन करनेवाले को भी वरदान देता है।'
नचिकेता इतना कहकर चुप हो गया। वह सोच रहा था कि मैंने कोई ऐसा काम नहीं किया है, जिसके बदले में वरदान की याचना की जाय । इसी बीच यमराज फिर बोल पड़े—'कुमार ! तुम संकोच मत करो; बिना तुझे वरदान दिए हुए मैं अन्न-जल तक नहीं ग्रहण कर सकता ।'
नचिकेता विवश हो गया । हाथ जोड़कर विनीत भाव से बोला- 'भगवन् ! मैं अपने पूज्य पिता का इकलौता बेटा था। उनकी सेवा के लिए कोई दूसरा प्राणी मेरे घर पर नहीं है । मेरे यहाँ चले थाने से उन्हें घपार कष्ट हो रहे होंगे, क्योंकि उनका शरीर भी शिथिल हो गया है । अतः मुझे पहला वरदान यही दीजिए कि— 'मेरे पिताजी पूर्ण स्वस्थ और नीरोग हो जायें । मेरे विषय में उनकी चिन्ताएँ मिट जायँ और उनका क्रोध मेरे ऊपर से दूर हो जाय ।'
यमराज ने दोनों हाथों को ऊपर उठाते हुए गम्भीर स्वर में कहा- 'ब्राह्मणकुमार ! तुम्हारी यह अभिलाषा पूरी हो। तुम्हारे पिता संसार की सब प्रकार की चिन्ताओं से मुक्त हो जायें । अब तुम मुझसे अपना दूसरा वरदान मांगो।'
नचिकेता थोड़ी देर तक मौन रहा। फिर हाथ जोड़कर बोला- 'देव ! मैने सुना है कि स्वर्ग में बड़ा सुख मिलता है। न वहाँ आपका (मृत्यु का) भय है, न बुढ़ापे का । भूख और प्यास भी वहां किसी को नहीं सताती। आप उस स्वर्गलोक के प्रमुख अधिकारी हैं । अतः उसे प्राप्त करने की विद्या तो अवश्य ही जानते होंगे। ऐसी कृपा कीजिए कि वह विद्या मुझे भी प्राप्त हो जाय । यह दूसरी अभिलाषा है ।'
यमराज को आज प्रथम बार स्वर्गविद्या का सच्चा अधिकारी मिला था। अतः उसे देने में उन्हें प्रति प्रसन्नता हुई । गद्गद कण्ठ से वह बोले-'नचिकेता ! तुम्हें स्वर्गविद्या की प्राप्ति अपने भाप ही होगी। अब तीसरा वरदान माँगों । तुझे वरदान देते समय मुझे सचमुच बड़ी प्रसन्नता हो रही है।'
नचिकेता एक ऐसा ब्राह्मणकुमार था, जिसका पिता जीवन की उपासना में ही छला गया था । श्रतः उसने अपने मन में विचारा कि जीवन-विद्या में कौन ऐसा गूढ़ रहस्य है, जिसके कारण मेरे पूज्य पिताजी के समान ब्रह्मवेत्ता भी ठगे गये । उस रहस्य को तो अवश्य जानना चाहिए। विनीत वाणी में उसने हाथ जोड़ कर कहा - 'देव ! आप जीवन विद्या के अनन्य भावार्य कहे जाते हैं। मैं जीवन विद्या के गूढ़ रहस्य को जानना चाहता हूँ, जिसके कारण मेरे पिताजी जैसे निःस्पृह एवं तपस्वी को भी धोखा हुमा । पतः प्राप कृपा कर मुझे उस जीवन- विद्या का तत्त्व बतलाइए। इसके सिवा अब मुझे किसी अन्य वरदान की आवश्यकता नहीं है।'
नचिकेता की बातों को सुनकर यमराज स्तब्ध रह गये । उन्हें स्वप्न में भी यह ध्यान नहीं था कि दस साल के इस ब्राह्मण किशोर में सांसारिक तत्त्वों की इतनी प्राकुल जिज्ञासा होगी। थोड़ी देर तक चुप रहने के बाद वह गम्भीर स्वर में जंभाई लेते हुए बोले- 'कुमार ! तुम जिस जीवन-विद्या की चर्चा कर रहे हो, वह तो बड़े-बड़े देवों के लिए भी दुर्लभ है। तुम शायद यह भूल गये कि मैं मृत्यु का देव हूँ, जीवन का नहीं। मेरा नाम ही मृत्यु है, जीवन-विद्या का मुझसे कोई सम्बन्ध नहीं है। तुम कोई दूसरा वर मांगो। यह वर पाकर भी भला क्या करोगे !'
नचिकेता इस तरह धोखे में पड़नेवाला बालक नहीं था। वह जानता था कि संसार में जीवन से बढ़कर दूसरी चीज़ कौन-सी है ? जो जिन्दगी के सब तत्त्वों को जान लेगा, उसे धन-सम्पत्ति या स्वर्ग के राज से भी कोई मतलब नहीं रहेगा । अनमोल हीरे को छोड़कर मिट्टी का घरौंदा लेना उसे क्यों पसन्द श्राता ? उसने दृढ़ता प्रकट करते हुए कहा- 'भगवन् ! यदि वह जीवन-विद्या देवताओं को भी दुर्लभ है, तब तो मैं सब प्रकार का कष्ट सहन करके भी उसे पाना चाहूँगा । ग्राप जो यह कह रहे हैं कि आप केवल मृत्यु के देव हैं, उसी से तो मुझे मालूम हुआ कि आप जीवन के तत्त्वों को पूर्णतया जानते हैं। क्योंकि जो अन्धकार को जानता है, वही प्रकाश की किरणों को भी पहचानता है। बिना एक के जाने दूसरे का परिचय कैसे हो सकता है ? मैं तो समझता हूँ कि आपके समान इस जीवन विद्या को सिखाने वाला दूसरा श्राचार्य मुझे कहीं अन्यत्र नहीं मिलेगा । देव ! में इसके अतिरिक्त दूसरा कोई भी वर नहीं चाहता।'
यमराज ने एक बार फिर नचिकेता को इस निश्चय से डिगाने का असफल प्रयत्न किया, उसने कहा—'कुमार! तुम्हारे लिए में संसार का समस्त धन- वैभव देने को तैयार हूँ । तुम चाहो तो मैं सैकड़ों वर्ष की लम्बी उमर तुम्हें दे दूँ । पृथ्वी का सारा राज तुम्हारा कर दूँ: ऐसे-ऐसे रथ, घोड़े और हाथी देहूँ, जो इच्छा करते हो जहाँ चाहो, पहुँचा देंगे। दास, दासी, राजभवन, सुन्दरी स्त्री, पुत्र-पौत्रादि जो कुछ भी चाहो, तुम्हारे लिए प्रस्तुत कर दूँ । स्वर्गलोक और मृत्युलोक का सारा भोग-विलास भी मैं तुम्हें दे सकता हूँ, मगर ऐसा वर मुझसे मत माँगो, जिसकी देने की सामर्थ्य मुझमें है ही नहीं ।'
नचिकेता चुपचाप यमराज की चतुरता भरी बातें सुनता रहा । यमराज के इन प्रलोभनों का उसके मन पर कुछ भी असर नहीं पड़ा। हाथ जोड़कर विनम्र स्वर में वह बोला—'मृत्यु के देव ! आपसे यह कहना न पड़ेगा कि यह वस्तुएँ, जिन्हें नापने मुझे देने की चर्चा की है, कितनी नश्वर हैं । एक क्षण के लिए भी इनका कोई ठिकाना नहीं है । भोग-विलास, राज-काज, स्त्री-पुत्र, हाथी-घोड़े यह सब मरने पर किस मनुष्य के साथ-साथ जाते हैं। लम्बी प्रायु भी तो एक न एक दिन खतम हो ही जायगी। मुझे तो ऐसी वस्तु की जरूरत है, जिसके पाने से मरना नहीं पड़ता । मैं तो उस जीवन-विद्या को पाना चाहता हूँ, जिसे जान- कर आप कभी मरते नहीं । हे महाराज ! आपके समान परम शान्ति एवं सन्तोष देनेवाले देवता की शरण में आकर भी कौन ऐसा अभागा होगा, जो इन प्रशान्ति श्रौर श्रसन्तोष पहुँचानेवाली नाशवान वस्तुओं की कामना करेगा ? मुझे दूर मत फेंकिए। अपनी अमोघ कृपा का भाजन बनाकर इस तरह भुलावे में डालने की आशा मैं आपसे नहीं करता । देव! मुझे जीवन-विद्या का शिष्य बनाइए और दूसरी बातें छोड़ दीजिए। मैं आपसे बिना इस विद्या की प्राप्ति किए हुए कहीं अन्यत्र नहीं जा सकता ।'
यम की इस अग्नि परीक्षा में उत्तीर्ण होकर नचिकेता का मुख-मण्डल सुवर्ण के समान दमकने लगा । उसकी दृढ़ निश्चय से भरी बातें सुनकर यमराज और भी प्रसन्न हो गये । उनकी सहज करुणा फिर जाग पड़ी। दोनों भुजाओं से बालक नचिकेता को उठाकर गले लगाते हुए यमराज ने गद्गद स्वर में कहा- मुनिकुमार ! तुम सचमुच धन्य हो । इस संसार में जन्म लेनेवाले मनुष्य मात्र के जीवन में एक बार ऐसा श्रवसर उपस्थित होता है, जब उसके सामने दो रास्ते दिखाई पड़ते हैं। एक होता है श्रेय का अर्थात् सच्चे सुख और वास्तविक कल्याण का तथा दूसरा होता है प्रेय का अर्थात् भोग-विलास से भरा हुआ, दूर से आकर्षक किन्तु आगे चलने पर अशान्ति, दुःख धौर कठिनाइयों से पूर्ण । इनमें पहला उन्नति धर्थात् ऊपर चढ़ने का, मनुष्य से देवता बनने का है तथा दूसरा पतन अर्थात् ऊपर से नीचे गिरने का, मनुष्य से राक्षस बनने का है बेटा ! यह दोनों मार्ग मनुष्य को बड़े धोखे में डालनेवाले होते हैं। जो उन्नति का पहला श्रेय मार्ग मैने बतलाया है, वह देखने में बड़ा कंटकाकीर्ण और पथरीला है। शुरू शुरू में उस पर चलना बहुत कठिन होता है। और इसके विपरीत दूसरा पतन का जो प्रेय मार्ग है, वह शुरू-शुरू में बहुत सरल, मन को गुमराह करनेवाला और सुविधाओं से भरा हुआ दिखता है। मनुष्य इनके पहचानने में धोखे में पड़ ही जाता है । तुम्हरी तरह बिरले हो लोग होते हैं, जो दूसरे को ठुकराकर पहले पर अग्रसर होते हैं । वत्स ! वही मनुष्य सच्चा वीर, विवेकी थोर भाग्यशाली भी हैं, जो तुम्हारी तरह मानव जीवन के तत्वों को ढूंढने में सब कुछ भुला देता है । मेरे बार-बार के प्रलोभन दिखाने पर भी जो तुम अपने निश्चय से नहीं डिगे, वह असाधारण बात है। बड़े-बड़े देवता, ऋषि-मुनि भी उस स्थिति में विचलित हो जाते हैं । वत्स ! तुम धन्य हो । अब मैं तुम्हें जीवनविद्या की शिक्षा श्रवश्य दूंगा, क्योंकि तुम उसके सच्चे अधिकारी हो ।
संसार में बहुत से लोग अपनी प्रतिभा तथा बुद्धि द्वारा इस जीवनविद्या को जानने का प्रयत्न करते हैं और थोड़े अंश में उसकी प्राप्ति भी उन्हें हो जाती है; पर उनके अपने जीवन में यथार्थ रूप में वह श्रोत-प्रोत नहीं होती। स्वार्थ, द्वेष, लोभ श्रादि के कारण उनकी आत्मा से उसका सहज सम्बन्ध स्थापित नहीं होता । फल यह होता है कि कच्चे पारे की तरह शरीर के अंग-प्रत्यंग से वह फूट पड़ती है। ऐसे अनधिकारी, न केवल संसार को ही वरन् अपने थापको भी धोखा देते हैं। जो उस संजीवनी विद्या को सच- मुच पाना चाहते हैं, वह सबसे पहले तुम्हारी तरह उसे धारण करने की योग्यता प्राप्त करें। इसके लिए उन्हें संसार की सत् प्रसत् वस्तुयों की भली-भाँति परीक्षा कर लेनी चाहिए। उन्हें संसारिक भोग-विलास से बिल्कुल अलग हो जाना चाहिए। मुनिकुमार ! थत्र में तुझे उस जीवनविद्या का उपदेश कर रहा हूँ । श्राज तक तुम्हारे समान इस जीवनविद्या का सच्चा अधिकारी मुझे कोई नहीं मिला । तुम सचमुच धन्य हो !'
नचिकेता यम के दोनों चरणों पर अपना शीश रखकर घृष्टता के लिए क्षमा माँगने लगा । उस समय उसका हृदय कृतज्ञता से भर उठा था ।
यम ने जीवनविद्या या ब्रह्मविद्या का यथेष्ट उपदेश देकर अन्त में कहा- 'हे तात! उस जीवनविद्या का मूल तत्व यही है कि जब मनुष्य की सारी इच्छाएँ बीत जाती हैं, जब मन सब प्रकार की मलिन वासनाओं से मुक्त हो जाता है, जब अन्तःकरण में कोई कालिमा को रेखा नहीं रह जाती, तब यह शरीर से मरणशील मनुष्य अमर बनकर उसी जीवन में ब्रह्म की प्राप्ति कर ब्रह्मानन्द में लीन हो जाता है, उसके हृदय की सारी गाँठें खुल जाती हैं और वह कभी नहीं मरता । यही जीवन विद्या का सारांश है, जिसे मैं तुम्हें बता चुका । अब तुम अपने घर को वापस जाओ और अपने पूज्य पिता के प्यासे नेत्रों को तृप्त करो ।'