कठोपनिषद् 

प्रथम अध्याय द्वितीय वल्ली

(इक्कीसवाँ मन्त्र)

आसीनो दूरं व्रजति शयानो याति सर्वत:।
कस्तं मदामदं देवं मदन्यो ज्ञातुमहर्ति॥ २१॥

(परमात्मा) बैठा हुआ भी दूर पहुँच जाता है, सोता हुआ भी सब ओर चला जाता है, उस मद से 
युक्त होकर भी मदान्वित न होनेवाले देव को, मेरे अतिरिक्त कौन जानने में समर्थ है?

कठोपनिषद्


(बीसवां मन्त्र)

अणोरणीयान्महतो महीयानात्मास्य जन्तोर्निहितो गुहायाम्।
तमक्रतु: पश्यति वीतशोको धातुप्रसादान्महिमानमात्मन:॥२०॥

इस देहधारी मनुष्य के हृदयरूप गुहा में स्थित आत्मा (परमात्मा) अणु से भी छोटा, महान् से भी बड़ा है। आत्मा (परमात्मा) की उस महिमा को निष्काम व्यक्ति भगवान् की कृपा से (मन तथा इन्द्रियों की निर्मलता होने पर) साक्षात् देख लेता है और (समस्त) दुःखों से पार हो जाता है।

कठोपनिषद्

प्रथम अध्याय द्वितीय वल्ली
(उन्नीसवाँ मन्त्र)

हन्ता चेन्मन्यते हन्तुं हतश्चेन्मन्यते हतम्।
उभौ तौ न विजानीतो नायं हन्ति न हन्यते॥ १९॥


यदि कोई मारनेवाला स्वयं को मारने में समर्थ मानता है और यदि मारा जानेवाला स्वयं को मारा गया मानता है, वे दोनों ही (सत्य को) नहीं जानते। यह आत्मा न मारता है, न मारा जाता है।

कठोपनिषद्

(अठारहवाँ मन्त्र)
न जायते म्रियते वा विपश्चिन्नायं कुतश्चिन्न बभूव कश्चित्।
अजो नित्य: शाश्वतोऽयं पुराणो न हन्यते हन्यमाने शरीरे॥ १८॥
(आत्मा न जन्म लेता है और न मृत्यु को प्राप्त होता है। यह न तो किसी से उत्पन्न हुआ है  इससे कोई उत्पन्न हुआ है। यह अजन्मा, नित्य शाश्वत, पुरातन है। शरीर के नष्ट हो जाने पर इसका नाश नहीं होता।)

कठोपनिषद्

प्रथम अध्याय द्वितीय वल्ली
(सत्रहवाँ मन्त्र)

एतदालम्बनं श्रेष्ठमेतदालम्बनं परम्।
एतदावम्बनं ज्ञात्वा ब्रह्मलोके महीयते॥
१७॥

यह (ॐकार ही) श्रेष्ठ आलम्बन (आश्रय) है, यह आलम्बन सर्वोपरि है, इस आलम्बन को जानकर ब्रह्मलोक में महिमान्वित (आनन्दित) होता है।