कठोपनिषद्


उपनिषद भारतीय आध्यात्मिक दर्शन के प्रमुख स्त्रोत हैं। जहाँ हमें परमेश्वर, परमात्मा (ब्रह्म) और आत्मा के स्वभाव और सम्बन्ध का दार्शनिक वर्णन प्राप्त होता है । यही ब्रह्मविद्या हैं। इसके नित्य अभ्यास से मुमुक्षु जनों की अविद्या, नष्ट हो जाती है और ब्रह्म की प्राप्ति हो जाती है। कठोपनिषद कृष्ण यजुर्वेद की कठशाखा शाखा से सम्बन्धित है। दो अध्यायों से युक्त इस उपनिषद के प्रत्येक अध्याय में तीन-तीन वल्लियां हैं। सदगुरुदेव की महती कृपा और उनकी सूक्ष्म सत्ता के अप्रतिम प्रभाव से हमने प्रथम अध्याय की तीनों वल्लियों और द्वितीय अध्याय की दो वल्लियों में उद्धृत मन्त्रों का भाव समझा। अब हम द्वितीय अध्याय की तृतीय वल्ली के मन्त्रों का भाव ग्रहण करेंगे। इस वल्ली में यमराज ने ब्रह्म की उपमा पीपल के उस वृक्ष से की है, जो इस ब्रह्माण्ड के मध्य उलटा लटका हुआ है। जिसकी जड़े ऊपर की ओर हैं और शाखाएं नीचे की ओर लटकी हुई हैं। यह सृष्टि का सनातन वृक्ष है जो विशुद्ध, अविनाशी और निर्विकल्प ब्रह्म का ही रूप है।

कठोपनिषद्
द्वितीय अध्याय 
तृतीय वल्ली
(प्रथम मन्त्र)


ऊर्ध्वमूलोऽवाक्शाखः एषोऽश्वत्थः सनातनः।
तदेव शुक्रं तद् ब्रह्म तदेवामृतमुच्यते।
तस्मिँल्लोकाः श्रिताः सर्वे तदु नात्येति कश्चन।। एतद् वै तत्।।१।।

ऊपर की ओर मूलवाला और नीचे की ओर शाखावाला यह सनातन अश्वत्थ (पीपल का)वृक्ष है। वह ही विशुद्ध तत्व है वह (ही) ब्रह्म है। समस्त लोक उसके आश्रित है कोई भी उसका उल्लघंन नही कर सकता। यही तो वह है। (जिसे तुम जानना चाहते हो।)
 

कठोपनिषद्


द्वितीय अध्याय 
द्वितीय वल्ली
(पन्द्रहवाँ मन्त्र)


न तत्र सूर्यो भाति न चन्द्रतारकं नेमा विधुतो भान्ति कुतोऽयमग्निः।
तमेव भान्तमनुभाति सर्व तस्य भासा सर्वमिदं विभाति।।१५।

(न वहाँ सूर्य प्रकाशित होता है न चन्द्रमा और तारागण, न ये विद्युत् (बिजलियां) चमकती हैं। तो वहाँ अग्नि कैसे चमक सकता है? उसके प्रकाशित होने पर ही सब प्रकाशित होता है, उसके प्रकाश से ही यह सब कुछ प्रकाशित होता है।)

कठोपनिषद्


द्वितीय अध्याय 
द्वितीय वल्ली
(चौदहवाँ मन्त्र)


तदेतदिति मन्यन्तेऽनिर्दश्यं परमं सुखम्।
कथंतु तद्विजानीयां किम् भाति विभाति वा।।१४।।

(नचिकेता ने मन में सोचा) वह अनिर्वचनीय सुख (यह) है ऐसा (ज्ञानीजन) मानते है। उसे भली प्रकार कैसे जानूँ ? क्या (तत्व स्वतः) प्रकाशित होता है अथवा क्या होता अनुभूत है?)

कठोपनिषद्

द्वितीय अध्याय 
द्वितीय वल्ली
(तेरहवाँ मन्त्र)


नित्यो नित्यानां चेतनश्चेतननामेको बहूनां यो विदधाति कामान्।
तमामत्मस्थं येऽनुपश्यन्ति धीरास्तेषां शान्तिः शाश्वती नेतरेषाम्।।१३।।

(जो नित्यों का भी नित्य, चेतनों का भी चेतन है। जो एक ही, सबकी कामनाओं को पूर्ण (जीवों के कर्मफलभोगों का विधान) करता है। जो धीर पुरुष (ज्ञानी), उस आत्मस्थित (परमात्मा) को अपने भीतर ही निरंतर देखते हैं; उन्हीं को शाश्वत (अखण्ड) शांति की प्राप्ति होती है, दूसरों को नहीं।)

कठोपनिषद्


द्वितीय अध्याय 
द्वितीय वल्ली
(बारहवाँ मन्त्र)


एको वशी सर्वभूतान्तरात्मा एकं रूपं बहुधा यः करोति।
तमात्मस्थं येऽनुपश्यन्ति धीरास्तेषां सुखं शाश्वतं नेतरेषाम्।। १२।।

एक (अद्वितीय) परमात्मा, जो सब प्राणियो का अन्तरात्मा तथा सबको वश मे रखनेवाला है, (वह) एक (ही) रूप को बहुत प्रकार से बना लेता है। ज्ञानी पुरूष उसे निरंतर अपने भीतर संस्थित देखते हैं उनको शाश्वत (अखण्ड) सुख प्राप्त होता है अन्य (दूसरों को) नहीं।