कठोपनिषद्

द्वितीय अध्याय 
तृतीय वल्ली

(सत्रहवाँ मन्त्र)
अग्डु.ष्ठमात्र: पुरुषोऽन्तरात्मा सदा जनानां हृदये सन्निविष्ट:।
तं   स्वाच्छरीरात्प्रवृहेन्मुञ्जादिवेषीकां  धैर्येण।
तं   विद्याच्छुक्रममृतं    विद्याच्छुक्रममृतमिति।।१७।।

अँगूठे के परिमाण वाला पुरूष, जो सबका अन्तरात्मा है, सदा मनुष्यों के हृदय में भली प्रकार प्रविष्ट (स्थित) है। उसे मूंज से सींक की भांति अपने शरीर से धैर्यसहित पृथक् करें (देखें)। उसे विशुद्ध अमृत (स्वरुप) जानें , उसे विशुद्ध अमृत जानें।


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