निश्चयरूप से यह (ॐ) अक्षर (नाश न होने वाला) ही तो ब्रह्म है।यह ही परम (सर्वश्रेष्ठ) अक्षर है। इसीलिए इसी अक्षर को जानकर जो जिस विषय की इच्छा करता है उसको वह प्राप्त हो जाता है।
सर्वे वेदा यत् पदमामनन्ति तपांसि सर्वाणि च यद् वदन्ति। यदिच्छन्तो ब्रह्मचर्यं चरन्ति तत्ते पदं संग्रहेण ब्रवीम्योमित्येतत्॥ १५॥ सारे वेद जिस पद का प्रतिपादन करते हैं और सारे तप जिस लक्ष्य की महिमा का गान करते हैं, जिसकी इच्छा करते हुए (साधकगण) ब्रह्मचर्य के नियमों का पालन करते हैं, उस पद को तुम्हारे (नचिकेता के) लिए संक्षेप में कहता हूँ, ओम् (ॐ) ऐसा यह अक्षर है।
(नचिकेता ने कहा) धर्म (कर्त्तव्य रूप आचरण) से .पृथक्, अधर्म (अकर्त्तव्य) से भी पृथक्, इस कृत और अकृत (कार्य और कारण) से भिन्न, भूत, भविष्य और वर्तमान (तीनों कालों) से भी अलग, आप जिस उस (परमात्मा) आत्मतत्त्व को जानते हैं, उसे कहें।
स मोदते मोदनीयं हि लब्ध्वा विवृतं सद्म नचिकेतसं मन्ये॥ १३॥
मनुष्य इस इस धर्ममय (उपदेश) को सुनकर और भली प्रकार से ग्रहण करके (तथा) बारम्बार अभ्यास करके, इस सूक्ष्म आत्मतत्त्व को जानकर उस आनन्दस्वरूप परब्रह्म परमात्मा को प्राप्त कर निश्चय ही आनन्दमग्न हो जाता है। (तुम) नचिकेता के लिए मैं परमधाम का द्वार खुला हुआ मानता हूँ।
उस कठिनता से प्राप्त करने योग्य, सूक्ष्म, अन्तःकरण और आत्मा में व्यापक, हृद्याकाश में स्थित, दुष्प्राप्य, नित्य (सनातन) देव (परमात्मा) को अध्यात्म (आत्मा सम्बन्धी) योग केअभ्यास से जानकर,विद्वान् पुरुष हर्ष और शोक (सुख-दुःख) दोनों को छोड़ देता है।